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________________ I अर्थ - योग, समाधि, बुद्धि-निरोध, स्वान्तनिग्रह, अन्तः संलीनता ये ध्यान के पर्यायवाची हैं योग अर्थात् चित्त का निरोध, समाधि-चित्त की स्थिरता, श्री निरोग-बुद्धि से चिन्तनरहित होना, स्वान्तः निग्रह - अपने अन्तःस्थल में स्थिर होना, अन्तः संलीनता- अपने अन्त:करण में संलीन होना ध्यान है अर्थात् मन, चित्त, बुद्धि और अहं का निरोध-निग्रह होना ध्यान है। तत्त्वार्थ सूत्र के नवम अध्ययन में धर्म-ध्यान के भेदों में आए 'विचय' शब्द की व्याख्या करते हुए तत्त्वार्थवार्तिक और सर्वार्थसिद्धि टीकाओं में 'विचयो विवेको विचारणेत्यनर्थान्तरम्' कहा है अर्थात् विचय, विवेक और विचारणा, ये समानार्थक हैं। चिन्तन करने से ऐसा जान पड़ता है कि प्राचीन काल में विचारण शब्द का प्रयोग विचरण व आचरण अनुभव करने के अर्थ में होता था। वर्तमान में भी विचरण शब्द का प्रयोग विहार करने के अर्थ में होता है। बौद्ध धर्म में ध्यान के प्रमुख ग्रन्थ महासत्तिपट्टान में सर्वत्र अनुपश्वी (ध्यान-साधक) के साथ विहरति (अनुपस्सी विहरति शब्द आता है, जहाँ पर बिहार शब्द का अर्थ 'यथाभूत तथागत' है, अर्थात् 'यथार्थ' में जैसा हो रहा है उसे वैसा ही अनुभव करना है' इसी आशय से धर्मके चारों भेदों के साथ प्रयुक्त विचय शब्द का अर्थ- विचरण आचरण रूप अनुभव करना उपयुक्त लगता है। विचरण, चिन्तन आदि अर्थ ध्यान के लक्षण 'थिरमज्झ-वसाणं-स्थिर अध्यवसान' के बाधक होने से असंगत लगते हैं। अतः विचय का अर्थ है'यथाभूत तथागत' अर्थात् ध्यान में जैसा अनुभव के रूप में प्र हो रहा है उसे यथार्थ रूप में वैसा ही देखना, उसके प्रति रागद्वेष न करना, उसका समर्थन व विरोध न करना, उससे असंग रहना असंग रहना ही व्युत्सर्ग है इसी अर्थ में धर्म-ध्यान के भेदों का विवेचन किया जा रहा है। ध्यान की उपर्युक्त परिभाषा तथा व्याख्या के परिप्रेक्ष्य में धर्म- ध्यान के चार भेद आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय में विषय शब्द का अर्थ विचार व चिन्तन करना उपयुक्त नहीं लगता है, कारण कि चिन्तन या विचारना में चित्त ऊहापोह व विकल्पयुक्त होता है, ज्ञानोपयोगमय होता है, निर्विकल्प व स्वसंवेदन रूप नहीं होता है। अतः यहाँ विचय शब्द का अर्थ विचार करना नहीं होकर विचरण करना, संवेदन व अनुभव करना अधिक उपयुक्त लगता है । यथा आज्ञाविचय- आज्ञा अर्थात् सत्य का श्रुतज्ञान का अपने अनादि अविनाशी स्वभाव का, शरीर से आत्मा की भिन्नता का जैसा स्वरूप प्रकट हो रहा है, वैसा ही अनुभव होना आज्ञाविचय है । यह शरीर व्युत्सर्ग कायोत्सर्ग है। अग्गयांवचय राग, द्वेष मोह आदि त्याज्य अपाय, दोषों को, कषायों को जैसे वे प्रकट हो रहे हैं, उन्हें वैसा ही अनुभव Jain Education International — करना, उनका समर्थन व विरोध न करना, असंगतापूर्वक अनुभव करना अपायविचय है। यह कषायव्युत्सर्ग है। का, विपाकविचय अपाय का, दोषों का, कर्मों कर्मों का विपाक - उदय का फल जैसा प्रकट हो रहा है उसे उसी रूप में समता व असंगतापूर्वक अनुभव करना विपाकविचय है, यह कर्म - व्युत्सर्ग है। — संस्थानविचय संसार या लोक के स्वरूप का अर्थात् उत्पत्ति-स्थिति-भंग (विनाश) के चक्र रूप प्रवाह का असगंतापूर्वक अनुभव करना संस्थानविचय है, यह संसार व्युत्सर्ग है । व्युत्सर्ग- अपने में देह की और देह में अपनी स्थापना करने से प्राणी को निज स्वरूप की विस्मृति हो जाती है। देह में अपनी स्थापना करने से 'मैं देह हूँ' रूप अहंभाव ( देहाभिमान) उत्पन्न होता है। इसका परिणाम यह होता है कि देह की सत्यता (स्थायित्व) भासित होनें लगती है और अपने में देह की स्थापना करने से देह में ममता (आसक्ति) उत्पन्न हो जाती है, जिससे देह सुन्दर तथा सुखद लगने लगती है। इस प्रकार देह से अभेदभाव के सम्बन्ध से अहम् (मान) और भेदभाव के सम्बन्ध से 'मम' (माया) उत्पन्न होता है। - अहम् और मम भाव से कामना की उत्पत्ति होती है जिससे चित्त कुपित, क्षोभित (अशान्त) हो जाता है और कामना की पूर्ति में सुख का और अपूर्ति में दुःख का भास होने लगता है। सुख की दासता और के भय से प्राणी निज अविनाशी (अनन्त) दुःख स्वरूप से विमुख हो जाता है अर्थात् विभाव में आबद्ध और स्वभाव से च्युत हो जाता है । यद्यपि अविनाशी निज स्वरूप सदैव विद्यमान है, उससे देशकाल की दूरी नहीं है, फिर भी प्राणी उसे कठिन मानकर उससे निराश होने लगता है और देह द्दश्यमान वस्तुएँ, जिनसे मानी हुई एकता है, वास्तविक नहीं, उनके प्रति आशान्वित, लालायित एवं प्रयत्नशील रहता है। यह प्राणी का घोर प्रमाद है। छ अष्टदशी / 200 For Private & Personal Use Only प्राणी ने देहादि दृश्यमान वस्तुओं में सम्बन्ध कब और क्यों स्वीकार किया, इसका तो पता नहीं चलता है, परन्तु वस्तुओं से सम्बन्ध वर्तमान में ही विच्छिन्न होना सम्भव है। इससे यह सिद्ध होता है कि हमारे स्वीकार करने से ही देहादि वस्तुओं से सम्बन्ध हुआ है अतः प्रत्येक सम्बन्ध स्वीकृति मात्र से उत्पन्न होता है और अस्वीकृति मात्र से उसका सम्बन्ध नाश हो जाता है। ऐसी कोई स्वीकृति हैं ही नहीं जो अस्वीकृति से न मिट जाए। कोई भी स्वीकृतिजन्य सम्बन्ध ऐसा नहीं है कि अस्वीकृति के अतिरिक्त अन्य किसी अभ्यास, प्रयास से मिट जाय । इस दृष्टि से देहादि से अनन्तकाल से सम्बन्ध चला आ रहा है, वर्तमान में उसका विच्छेद व्युत्सर्ग हो सकता है। www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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