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________________ श्री कन्हैयालाल लोढ़ा धवला टीका, पुस्तक १३ में तथा आदि पुराण में कहा है जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं। तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता।। -गाथा २, ध्यानाध्ययन, धवला टीका, पुस्तक १३, गाथा १२ स्थिरमध्यवसानं यत् तद् ध्यानं येच्चलाचलम्। सानुप्रेक्षाथवा चिन्ता भावना चित्तमेव।। -आदिपुराण, २१-९ अर्थ- जो स्थिर अध्यवसान (मन) है, वह ध्यान है। इसके विपरीत जो चंचल (अस्थिर) चित्त है, उसे भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्ता कहा जाता है। ये सब मन की प्रवृत्तियाँ या क्रियाएँ हैं अत: इन्हें ध्यान नहीं कहा जा सकता। अभिप्राय यह है कि जहाँ क्रिया व कर्तृत्व है वहाँ कायोत्सर्ग नहीं है। ध्यान में काया, वचन और मन में प्रवृत्ति या क्रिया करने का निषेध 'द्रव्य संग्रह' में स्पष्ट शब्दों में किया है मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं।। कायोत्सर्ग : ध्यान की पूर्णता -द्रव्य संग्रह, ५६ ध्यान में चित्त स्थिर, एकाग्र होता है। मन के एकाग्र होने अर्थ- हे साधुओ! तुम काया से कुछ भी चेष्टा मत करो, से चित्त का निरोध होता है।२ चित्तवत्ति का निरोध ही योग है।३ वचन से भी कुछ मत कहो और मन से कुछ भी चिन्तन मत योग की पराकाष्ठा समाधि है। समाधि की उपलबिध संयम, तप करा, जिसस आत्मा आत्मा हा म स्थिर होता हुआ रमण कर, व व्यवदान से होती है। संयम से आस्रव का निरोध होता है। यही परम ध्यान है। आस्रव के निरोध से नवीन कर्मों का बन्ध रुकता है। तप से ध्यान में किसी विशेष आसन, स्थान, समय आदि का व्यवदान होता है। व्यवदान से साधक अक्रियता प्राप्त करता है। महत्व नहीं है, महत्व मन-वचन काया के योगों के समाधान अक्रिय युत होकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाता है। परम शान्ति (स्वस्थता) का है, यथाको प्राप्त होकर सर्वदुःखों का अंत कर देता है। सव्वासु वट्टमाणा मुणओ जं देस-काल-चेट्ठासु। देह के आश्रय रहते कायोत्सर्ग, देहातीत होना सम्भव नहीं वरवेवलाइलाभं पत्ता बहुसो समियपावा।। है। कायोत्सर्ग या देहातीत होने के लिए देह के आश्रय से ऊपर तो देस-काल-चेट्टानियमो झाणस्स नत्थि समयंमि। उठना होता है। जो तन, वचन और मन, इन तीनों की अक्रियता जोगाण समाहाणं जह होइ तहा (प) यइयव्वं ।। से ही सम्भव है। (जैसा कि कायोत्सर्ग के पाठ में कहा है।) . -ध्यान शतक, ४०-४१ कारण कि क्रिया, मन, वचन व काया से होती है। क्रिया कोई अर्थ- मुनियों ने सभी देश (स्थान), काल और चेष्टा की भी हो, वह हलचल, चंचलता तथा अस्थिरता उत्पन्न करती है। अवस्था में अवस्थित रहते हुए अनेक प्रकार के पापों को नष्टकर कायोत्सर्ग में काया, वचन व मन की क्रिया का निरोध कर इन्हें सर्वोत्तम केवलज्ञान आदि को प्राप्त किया है, अत: ध्यान के लिए निश्चल व स्थिर किया जाता है जैसा कि कायोत्सर्ग करने के आगम में किसी विशेष देश, काल चेष्टा, आसन आदि के होने पाठ 'तस्स उत्तरी करणेणं' के अन्त में कहा गया है का नियम नहीं कहा है, किन्तु जिस प्रकार से भी योगों का मन, ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि वचन काया का समाधान (स्वस्थता, स्थिरता, निर्विकारता) हो, अर्थात् जब तक मैं कायोत्सर्ग करता हूँ तब तक काया को उसी प्रकार का यत्न करना चाहिये। स्थिर, वचन से मौन और मन को ध्यानस्थ आत्मस्थ रखूगा। अभिप्राय यह है कि कायोत्सर्ग में मन, वचन और काया अर्थात काया. वचन तथा मन से कोई भी क्रिया नहीं करूंगा। की किसी भी प्रकार की हलचल. चंचलता. प्रवत्ति या क्रिया से जैसा कि ध्यानाध्ययन (ध्यान शतक) ग्रन्थ में, षट्खण्डागम की ९, पथा ० अष्टदशी / 1980 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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