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________________ (१) नाम निक्षेप लौकिक व्यवहार चलाने के लिए किसी वस्तु का कोई नाम रख देना निक्षेप कहलाता है। नाम सार्थक या निरर्थक अथवा मूल अर्थ से सापेक्ष या निरपेक्ष दोनों प्रकार का हो सकता है। किन्तु जो नामकरण सिर्फ संकेत होता है, जिसमें जाति, गुण, द्रव्य, क्रिया आदि की अपेक्षा नहीं होती है, वही 'नाम निक्षेप' है अथवा जो अर्थ व्युत्पत्ति सिद्ध न हो अर्थात् व्युत्पत्ति की अपेक्षा किये बिना संकेत मात्र के लिये किसी व्यक्ति या वस्तु का नामकरण करना नाम निक्षेप विधि है। (२) स्थापना निक्षेप वास्तविक वस्तु की प्रतिकृति, मूर्ति, चित्र आदि बनाकर अथवा बिना आकार बनाये ही किसी वस्तु में उसकी स्थापना करके मूल वस्तु का ज्ञान कराना स्थापना निक्षेप विधि है। इसके भी दो भेद हैं- सद्भावना स्थापना तथा असद्भावना स्थापना । सद्भावना स्थापना के अनुसार कोई प्रतिकृति बनाकर जो ज्ञान कराया जाता है, उसे सद्भावना स्थापना विधि कहते हैं तथा असद्भावना स्थापना में वस्तु की यथार्थ प्रतिकृति नहीं बनायी जाती बल्कि किसी भी आकार की वस्तु में मूल वस्तु की स्थापना कर दी जाती है। (३) द्रव्य निक्षेप - पूर्व और उत्तर अर्थात् भूत एवं बाद की स्थिति को ध्यान में रखते हुए वस्तु का ज्ञान कराना द्रव्य निक्षेप विधि कहलाता है। (४) भाव निक्षेप- वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखकर वस्तु स्वरूप का ज्ञान कराना भावनिक्षेप विधि है । (ख) प्रमाण - विधि - संशय आदि से रहित वस्तु का पूर्ण रूप से ज्ञान कराना प्रमाण विधि है। इसके अन्तर्गत ज्ञेय वस्तु के विषय में सम्पूर्ण जानकारी दी जाती है। जैनाचार्यों ने प्रमाण का विस्तृत विवेचन किया है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार "जो अच्छी तरह मान करता है जिसके द्वारा अच्छी तरह मान किया जाता है यह प्रमितिमात्र प्रमाण है। 4 कषायपाहुड के अनुसार "जिसके द्वारा पदार्थ माना जाए, उसे प्रमाण कहते हैं।" प्रमाण के द्वारा ही पूर्ण और प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार सम्यक् ज्ञान ही प्रमाण है । इस प्रमाण ज्ञान को चार भागों में विभक्त किया गया है- (१) प्रत्यक्ष (२) अनुमान (३) आगम और (४) उपमान। इसमें से दो मति और श्रुत परोक्ष ज्ञान हैं तथा अन्य तीन अवधि, मनः पर्याय और केवल प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। सामान्यतया प्रत्यक्ष में हम इन्द्रिय उपलब्धों को देखते हैं। इसकी स्मृति भी हमें स्पष्ट दिखायी देती है। अन्य दर्शनों में प्रत्यक्ष और परोक्ष की जो व्याख्या मिलती है उससे पृथक जैन दर्शन में प्रत्यक्ष को व्याख्यायित किया गया है। जैन Jain Education International मान्यतानुसार प्रत्यक्ष ज्ञान हमें इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा की योग्यता से ही प्राप्त होता है और इसके विपरीत जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से प्राप्त होता है वह परोक्ष है। अनुमान तर्कशास्त्र का प्राण है। यद्यपि अनुमान प्रत्यक्षमूलक होता है, तो भी उसका अपना वैशिष्ट्य है। अनुमान के द्वारा ही हम संसार का अधिकतर व्यवहार चला रहे हैं। अनुमान के आधार पर ही तर्कशास्त्र का विशाल भवन खड़ा हुआ है। कार्य कारण या हेतुहेतुमान के सिद्धान्त से अनुमान प्रमाण का प्रादुर्भाव होता है, जहाँ कार्यकारण भाव न भी हो वहां अविनाभाव सम्बन्ध को देखकर अनुमान ज्ञान होता हुआ देखा जाता है। अनुमान के भी दो भेद हैं- स्वार्थानुमान और परार्थानुमान । अनुमानकर्त्ता जब अपने अनुभूति से स्वयं ही किसी तथ्य का हेतु द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है तो वह स्वार्थानुमान कहलाता है। और जब वचन प्रयोग द्वारा किसी अन्य को वही तथ्य समझाता है तो उसका वह वचन प्रयोग परार्थानुमान कहलाता है। स्वार्थानुमान ज्ञानात्मक है तो परार्थानुमान वचनात्मक । (३) आगम प्रमाण- सम्यक् श्रुत का ज्ञान आगम प्रमाण है अथवा आप्त या प्रामाणिक पुरुषों के शब्दों द्वारा वस्तुओं का जो ज्ञान होता है उसे आगम प्रमाण कहते हैं। क्योंकि वास्तव में वह ज्ञान आगम प्रमाण है जो श्रोता या पाठक को आप्त की मौखिक या लिखित वाणी से होता है। यहाँ आप्त पुरुष से तात्पर्य है जो वस्तुओं के उनके यथार्थ रूप में जैसा जानता है। वैसा ही कहता है, वह आप्त पुरुष है। (४) उपमान- सदृश्यता के आधार पर वस्तु को ग्रहण करना उपमान है। अर्थात् यदि किसी ने किसी अमुक वस्तु के बारे में कोई वाक्य सुन रखा हो और उसी प्रकार की वस्तु अचानक उसके सामने आ जाये तो पूर्व में सुने गये वाक्य का तुरन्त स्मरण हो जाता है। वह समझ जाता है कि वह वही अमुक वस्तु है, यह उपमान है। उपमा दो प्रकार की होती हैसाधम्योंपनीत और वैधयोंपनीत । १ प्रमाणों का यह वर्गीकरण तर्कानुसारी होने पर भी आगमिक है किन्तु पश्चात्वर्ती तार्किक आचार्यों ने प्रमाणों का वर्गीकरण अन्य प्रकार से किया है। उनके अनुसार प्रमाण दो प्रकार का है. प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रत्यक्ष प्रमाण के भी दो भेद सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष तथा परोक्ष प्रमाण के पांच भेद बताए गए हैं- १. स्मृति २. प्रत्यभिज्ञान ३. तर्क ४. अनुमान ५ आगम । १ ० अष्टदशी / 1820 For Private & Personal Use Only О www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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