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जवाहरात के साथ औरत भी थी। उसकी रक्षा के लिए उसे अलग महल में रखा गया। हिजड़े सुरक्षा अधिकारी रखे गये। यह पूरे प्रयास किये गये कि उसकी सूरत विदेशी लूटेरे देख न लें। पुरुष समाज ने भी इसकी सुरक्षा में प्राण गंवाना नैतिक धर्म समझा। राजपूत महिलाओं को दुश्मनों/लुटेरों के हाथ आने के बजाय 'जौहर' का पाठ पढ़ाया गया। समझ में नहीं आता कि जौहर, हराकिरी/आत्महत्या की अपेक्षा यह शिक्षा क्यों नहीं दी गई कि वे दुश्मन का हथियारों से सामने करे, विजयी होती है तो लूटेरों से लूटा हुआ धन भी वापस ले सकती है, उन्हें गुलाम बना सकती है, अन्यथा अपनी अस्मिता की रक्षा करते हुए युद्ध के दौरान मैदान में आत्मोत्सर्ग कर ही सकती है।
अतएव निष्पक्ष दृष्टि से देखें तो श्रीमती प्रतिभा पाटिल का कथन सत्य है। वे जिन्हें मुसलमान कह रही हैं, वे मुसलमान नहीं लूटेरे और डाकू थे जो खैबर और बोलन के दर्रे से आते। धन संपत्ति लूट कर ऊँट घोड़ों पर लादकर वापस चले जाते थे। यहाँ के अच्छे विद्वान, कारीगरों को भी जबरदस्ती ले जाते थे। अतएव जो राजा महाराजा राज कर रहे थे, वे सब राजपूत ही थे उनका अपनी रानियों को महलों की चाहरदीवारी में पर्दे के अन्दर रखना जरुरी था।
श्रीमती पाटिल ने जो बात कही उसके अनर्थ न करें। इस पूरे प्रसंग को यू देखें कि एक तरफ डाकू/लूटेरे/लालची हैं, दूसरी तरफ भौतिक संपत्ति और स्त्री है जो मानव समाज में संपत्ति से बढ़कर स्थान रखती है - उसे वे डाकू लूटेरे/लालची लूटना चाह रहे हैं। राजे रजवाड़े के जमाने में किसी की भी बहू बेटी खूबसूरत दिखाई दी तो उसे वे भी अपने कारिंदों के माध्यम से उठवा लेते थे। अतएव आम आदमी भी बहू बेटी को घर के अंदर रखता था, बाहर जाने पर पर्दे में जाना पड़ता था। २१वीं शताब्दी में काफी कुछ परिवर्तन हुआ है और ३० प्रतिशत पुरुष के मुकाबले आ गई है। बेड़ियों से आजादी ४०-५० प्रतिशत मिली है। अभी संपूर्ण आजादी के लिए रास्ता लम्बा है। वैसे स्वयंवर युग में पर्दा प्रथा नहीं रही होगी।
मंदसौर (म.प्र.)
० अष्टदशी / 1630
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