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किसी तरह वे गाँव के एक नाई को ढूँढ़ सके जिसके भोथरे दुर्भाग्य से हमारी शिक्षा अभिजात्य वर्ग की जिस खुशामद उस्तरे से उन्होंने अपने सिर के बाल मुंडवाए और मूंछे, दाढ़ी करने वाली परम्परा से जुड़ी है वह उन जीवन-मूल्यों से भी जुड़ी साफ करवाईं। मार्ग की पवित्र नदियों के घाटों पर वे गधे की है जिसमें संशय करना, बोलना, मूल्यों का प्रतिसंसार रचना मना आत्मा की शान्ति-प्रार्थना करते रहे जो बिचारा जीवन भर दूसरों है। लेकिन आप लोक-साहित्य को बोलते, तकरार करते, के लिए बोझ ढोने-उठाने के लिए अभिशप्त रहा। जो हो, गधे लोक-व्यवहार के सुरुचिपूर्ण मूल्यों के पक्ष में खड़े होने की की आत्मा को शान्ति मिली या नहीं यह विवादित है किन्तु श्रीधर निर्भीकता को देखेंगे तो दंग रह जायेंगे। की आत्मा को अवश्य शान्ति मिलती रही।
अहिंसापुरी, उदयपुर यों दो-तीन दिन की यात्रा करते थके-हारे 'भद्र' (लोक शब्द 'भद्दर)' हुए श्रीधर शास्त्री किसी एक सुबह ससुराल के गाँव के सीमान्त पर नजर आए। तभी शौचादि के लिए आई उनकी साली ने उन्हें देखा-पहचाना। जीजाजी के आने की खुशखबरी सुनाने के लिए वह फुर्तीली युवती अपनी माँ और जीजी के पास पहुँची। जो वर्णन उसने किया उसमें जीजाजी के 'भद्र' होने का भी था। जाहिर है कि श्रीधर शास्त्री की सास और पत्नी को उनके किसी निकट प्रियजन की मृत्यु के कोई पूर्व समाचार न होने से केवल अंदाज लगाना ही संभव था। तब भी उन्होंने जामाता के आने से पूर्व रोना-धोना और दारुण शोक प्रदर्शन शुरू कर दिया। परम्परानुसार आसपास की स्त्रियाँ भी आ गईं जिन्हें कोई बात मालूम नहीं थी और न मालूम करने की इच्छा।
इधर जामाता श्रीधर शास्त्री ससुराल पहुँच गये। वे थोड़े चकित होकर अपने बैठने के लिए उच्च स्थान ढूँढ़ने लगे। जामाता के स्वागत के लिए जो शास्त्रोक्त वर्णन उन्होंने पढ़ा था उसमें लिखा था 'उच्च स्थानेषु पूज्येषु' यानी पूज्य के लिए उच्च स्थान आवश्यक है। उन्हें जल्दी ही घास की ऊँची गंजी नजर आ गयी। वे उसी ऊँचे और पूज्य स्थान पर जा चढ़े और तब तक बैठे रहे जब तक उचित स्थान की व्यवस्था नहीं कर दी गई।
रात हो चली थी। गाँवों में सूर्यास्त के बाद रात जल्दी आ जाती है। श्रीधर शास्त्री जल्दी ही शयनकक्ष में पहुँच गये। उनके पहुँचने के बाद उनकी रूपवती पत्नी शीलभद्रा वहाँ पहुँची। रूप की उस दीप-शिक्षा को देखते ही श्रीधर शास्त्री मन-ही-मन वह सुप्रसिद्ध उक्ति दुहराने लगे 'रूपवती भार्या शत्रु' यानि रूपवान भार्या दुश्मन होती है। तब वे क्या करें? कुरूप बनाने के क्रम में उन्हें उसे एक आँख वाली कर देने का उपाय सूझा। लेकिन 'एकाक्षी कुल नाशनी' यानी एक आँख वाली वंश डुबो देगी-यह शास्त्र-वचन याद आया। इधर शीलभद्रा को पति के कलुषित भाव समझने में देर न लगी। वह क्रुद्धसिंहनी की तरह छलाँग लगा कर श्रीधर को अकेला छोड़कर चली गई और लौट कर 'एकाक्षी' और कुरूप होने के लिए कभी नहीं लौटी।
० अष्टदशी / 1610
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