SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न नंद चतुर्वेदी लोक-साहित्य का मिजाज एक निर्द्वन्द्व आलोचक की तरह है जो यह मानता है कि कहीं भी और किसी के अन्त:पुर में झाँकना-ताकना गैरवाजिब नहीं है। सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और किसी भी किस्म की गैर-बराबरी के सीमान्तों पर निगहबानी करना और वहाँ खड़े परम नैतिक और धर्म-प्रवीण थानेदारों के अहंकार की धज्जियाँ उड़ाना उसकी प्राथमिकता में शामिल है। अपनी स्थापना के समर्थन में मैं आपको केवल दो लोककथायें लिख देता हूँ जो अपने समय के महापंडितों का मान-मर्दन करने के प्रसंग में है। शिक्षा के दुर्लभ अधिकार को पाकर मदांध कुलीन जितने इतराये-बौराये फिरते हैं उनका नशा उतारने के लिए पूरा गाँव-समुदाय मिलकर शास्त्रार्थ का खेल रचता है और केवल भय के मनोविज्ञान से इतराये काशीप्रशिक्षित पंडित का नूर उतार देता है। कथा में यह ईर्ष्या दंश उस शिक्षा-व्यवस्था को लेकर भी है जिसके चलते सिर्फ अभिजन या कि कुलीन ही शिक्षित होते हैं और अधिकांश दबेकुचले लोग हाशिए पर बैठ अपने-अपने परम्परागत नीरस व्यवसाय से जिन्दगी चलाते-चलाते मर जाते हैं। अवसर न करार मिलने और सामाजिक गैर-बराबरी की तकलीफों, प्रतिहिंसा के तनावों को सहते हुए वे इन कथाओं के जरिए उन पोथी-पंडितों लोककथाएँ कविताओं से ज्यादा स्वादिष्ट होती हैं। इन की हेकड़ी उतार देते हैं जो शास्त्रों के नीरस ज्ञान और आडम्बर कथाओं में शब्द की अभिधा शक्ति अपनी अबाध रंगत से खुलती है और सीधे-सीधे वार करती है। लोक कथाओं ने ढोते-ढोते बूढ़े बैल हो जाते हैं। अभिजनों की संस्थाओं, व्यवस्थाओं और अभिरुचियों की जम चलिए, अभिजात्य और शिक्षा के दंभ को एक अनोखे कर खिल्ली उड़ाई है और समानान्तर आलोचना-विमर्श तैयार जनतांत्रिक अंदाज से तोड़ने वाली इस लोक कथा को पढ़ें। किया है। लोक साहित्य में यह तनाव इतना ज्यादा खला और युवक आदित्य प्रकाश अपने नगर ब्रह्मपुर लौट आया था। उसने व्यक्त है तब भी साहित्य के 'शालीन पंडितों' और 'समीक्षकों' काशी के पंडितों से शिक्षा ग्रहण की थी जिसका उसे गर्व भी था ने इस तरफ नहीं देखा है और न इस 'निम्न कोटि के साहित्य और गौरव भी। अब जैसे अमेरिका या यूरोप के किसी देश से को सामाजिक संरचना के आधारभूत सबूतों की तरह शामिल लौटा कुलीन किसी-न-किसी बहाने, बात करते-करते वहाँ के किया है। इसलिए यह तकरार नजर नहीं आती। जहाँ कहीं ऐश्वर्य के वर्णन से परितृप्त होता नजर आता है, आदित्य भी नजर आती है वहाँ काव्य-शास्त्र को विनोद और रस की मंजूषा किसी न किसी प्रसंग पर इतरा कर काशी की अद्वितीयता के मानने वाले इसे 'शाश्वत साहित्य' से पृथक कर देते हैं। वर्णन में रम जाता है। वह साथियों को अपनी योग्यताओं, वाक् पटुता और शास्त्रार्थों के वृत्तान्त बताते यह कहना नहीं भूलता कि __यह बात ध्यान देने जैसी है कि लोक-कथाओं में सम्पूर्ण । जीवन और उसकी परम्परा पर निडर होकर रोशनी डाली गयी उसने विश्व प्रसिद्ध पुस्तकों को इतनी बार छुआ, देखा और पढ़ा है। जहाँ जो सौन्दर्य-विहीन है, जिन्दगी का विनाश करने वाला है कि उनकी आकृतियों से उनका नाम बता सकता है। या संतुलन को नष्ट करने वाला है वहाँ उसका उपहास है, कोई ब्रह्मपुर के जन-पद में यह प्रसिद्धि फैली हुई थी कि आदित्य न-कोई घमंड तोड़ने वाली वक्रोक्ति या अन्योक्ति-कथन है, प्रकाश आकृति से पुस्तक पहचान जाते हैं। इस प्रसिद्धि ने कोई चतुराई भरा संवाद या श्लोक है, आकाशवाणी या अहंकार और आत्मश्लाघा के शिखर छू लिए थे। पास के अभिशाप है। गहन दार्शनिक विषयों पर शास्त्रार्थ है या सनातन । प्रीतिपुर वाले इन दर्पोक्तियों से थक गये थे। उन्होंने निश्चय किया प्रश्नाकुलता। कि वे काशी के युवा पंडित को मात देंगे। प्रीतिपुर की तरफ से यह कहला दिया गया कि यदि उनकी पुस्तक को पं. आदित्य ० अष्टदशी / 1590 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy