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________________ बनेचन्द मालू पशु बनाम आदमी एक दिन एक चिड़िया को देखा। उसकी दिनचर्या का लिया लेखा। पौ फटते ही उठती है। चूं चूं ची ची चहकती है। सोचा इतनी क्यों बोलती है। समझ में आया मुख में राम नाम की मिश्री घोलती है। सूर्योदय के बाद उड़ती है, फुदकती है। आनंदित है, मन में मस्ती है। . कभी तिनका लाती है, कभी दाना। तिनकों से घोंसला बनाती है, दानों से खाना। खुद खाती है, बच्चों को खिलाती है। इस तरह अपना जीवन चलाती है। रात होते ही सो जाती है। गहरी नींद, कोई आवाज नहीं। कितनी शान्ति, कोई तनाव नहीं। फिरएक आदमी को देखा उसकी दिनचर्या का भी लिया लेखा। कभी उठता है जल्दी, तो कभी देर से। कभी दिखता है खुश, तो कभी शिकवे ढेर से। कभी तो करता है, भगवान को याद, कभी लगी रहती है, भागम-भाग। काम पर जाता है। कभी समय पर, तो कभी हो जाती है देरी। लौटता है तो कभी प्रसन्नता, कभी चिन्ता रहती है घेरी। घर आने का निश्चित समय नहीं। कभी मीटिंग तो, कभी काम खत्म नहीं। इस तरह के वातावरण में खुशी के क्षण कम, तनाव ज्यादा। आते ही घर वालों को काट खाने को आमादा। देखते हैं प्रायः दिनचर्या रहती है अस्त-व्यस्त। घर हो जाता है कलह से सन्तप्त और त्रस्त। बाहर भी किसी से झमेला किसी से झगड़ा। कभी यहां, कभी वहां करता ही रहता है रगड़ा। न शान्ति से रहता है, न शान्ति से खाता है। इसी तरह उसका जीवन बीत जाता है। सोचा - आदमी बनाने से क्या फायदा? इससे तो पक्षी अच्छे हैं जो जीने का जानते हैं कायदा। जन्म से पहले भगवान से अवश्य किया होगा वायदा, कि आदमी बना के भेज रहे हैं, देवता बनके आऊंगा। सबको जीने की राह दिखाऊंगा। धरती को स्वर्ग बनाऊंगा। उनको क्या पता था कि जाते ही भूल जाएगा वायदा। अफसोस कर रहे होंगे आदमी की जात ही बनाने से क्या फायदा? हुआ यही, आसन डोला, नीचे देखा और लिया जायजा। अरे ! इसने तो धरती का वातावरण ही दूषित कर दिया। पापों और दुष्कर्मों ही दुष्कर्मो से भर दिया। कहीं हिंसा, कहीं डाका, कहीं दुराचार। कहीं लूट, कहीं चोरी, कहीं अत्याचार। कहीं झगड़ा, कहीं धोखा, कहीं छल। जुल्मों, अपराधों की नदियां बह रही हैं कलकल। मैंने तो बनाया था इसे विवेकशील और प्रबुद्ध । पर करता रहता है यह विध्वंसक युद्ध। चिन्तन कियाक्या कोई अन्य प्राणी भी ऐसा करता है? क्यों मानव अपने विनाश से भी नहीं डरता है? सोचा-व्यर्थ ही दी इसे इतनी सोच और बुद्धि । आगे से आदम जात को ही रखेंगे पशुओं की तरह निर्बुद्धि। तभी धरती की फिर से होगी विशुद्धि। तभी धरती की फिर से होगी विशुद्धि। कोलकाता ० अष्टदशी / 1480 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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