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देते हैं, वहीं जैन पत्रकारिता हिंसा को नकारती है, अहिंसा के 'सा विद्या या विमुक्तये' विद्या वही है जो मुक्ति प्रदान कर सिद्धांतों को बढ़ावा देती है। कहा जाता है कि अखबार में छपे सके अर्थात विद्या से ही अविद्या का नाश होता है। वैदिक हुए विचार जन-जन के विचार होते हैं अत: पत्रकारिता में अहिंसा ऋषियों ने 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' का उद्घोष कर दर्शाया कि से ओतप्रोत विचारों को ही स्थान मिलना चाहिए ताकि समाज का शिक्षा ही मनुष्य को जीवन के अज्ञानरूपी अंधकार से बाहर वातावरण समरसता से युक्त होकर जनकल्याणकारी बने। निकाल सकती है। शिक्षा की प्रासंगिकता भूत-भविष्य और बदलते हुए परिदृश्य में पत्रकारिता ने एक व्यावसायिक
वर्तमान में बराबर बनी रहती है। जैन पत्रकारिता ने शिक्षा की स्थान ले लिया। आज पत्रकारिता एक मिशन न होकर व्यवसाय प्रबल विधा को अपने में सम्मिलित कर ज्ञान का एक अभिनव बन गया। ऐसे में पत्रकार एवं सम्पादक के मन में भी परिग्रह अध्याय जोड़ा इससे जहा जैन पत्रकारिता को चार चांद लगे वहीं की वृत्ति पैदा हुई। जबकि पत्रकारिता में अपरिग्रह को विशेष
शिक्षा के माध्यम से जैन पत्रकारिता एक क्रांतिकारी कदम उठा महत्व मिलना चाहिए। पत्रकार एवं साधु समान होते हैं। जैन सकी। पत्रकारिता अपरिग्रह की भावना पर विशेष बल देती है ताकि जैन पत्रकारिता में चरित्र को सर्वाधिक बल दिया गया है। समाज का दर्पण उससे प्रभावित न हो। परिग्रह की विशेषता होती एक चरित्रवान व्यक्ति ही राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। समाज है कि उससे मोह उत्पन्न होता है एवं जहां से पत्रकारों को कुछ को आधार प्रदान कर सकता है। वर्तमान में चारित्रिक पतन के प्राप्त हुआ वे उसका विशेष ध्यान करने लगते हैं ऐसे में निष्पक्ष दौर में चरित्र बल के द्वारा समाज का पुन:-पुन: उद्धार जैन पत्रकारिता संभव नहीं है। अपरिग्रहवृत्ति ही निष्पक्ष पत्रकारिता पत्रकारिता के माध्यम से ही संभव दिखाई देता है। का दायित्व निर्वहन कर सकती है।
धन गया कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया थोड़ा गया, चरित्र आजादी के पूर्व के अखबारों के सम्पादक एवं पत्रकार गया सब कुछ गया, वाली आस्कर वाइल्ड की उक्त सूक्ति अपरिग्रही होकर अपने कर्तव्य के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे, सार्थक सिद्ध होती है। चरित्र समाज का मेरुदण्ड है इसका सुदृढ़ उन्हें अंग्रेज शासकों का प्रलोभन नहीं डिगा सका। अपरिग्रह ही होना अत्यन्त आवश्यक है। जैन पत्रकारिता में विभिन्न मनीषियों आज के युग की प्रथम आवश्यकता है। जैन पत्रकारिता ने जैन ने इसका समावेश कर जैन पत्रकारिता को एक आदर्श रूप सिद्धांतों के महत्वपूर्ण सूत्र अपरिग्रह को अपनाकर एक विशेष दिया। आयाम तय किए जिसके आधार पर आगामी पीढ़ियां एक स्वस्थ
सफलता वहीं मिलती है जहां सकारात्मक सोच हो। पत्रकारिता को बढ़ावा दे सकेगी।
नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति प्राय: जीवन में असफल होते हैं। जैन पत्रकारिता में 'जियो और जीने दो' की संस्कृति को जैन पत्रकारिता ने हमेशा सकारात्मक सोच को बढ़ावा दिया विशेष महत्व दिया गया है। आज के युग में विषमता का इसमें नकारात्मक विचारों के लिए कोई स्थान नहीं है। निराश वातावरण तेजी से बढ़ता जा रहा है। परस्पर ईर्ष्या से पूरी दुनिया एवं हताश व्यक्ति जीवन में रोने के अतिरिक्त और कोई कार्य त्रस्त है। पड़ोसी-पड़ोसी को सुखी नहीं देखना चाहता, पाश्चात्य नहीं कर सकते। सभ्यता के वशीभूत होकर टी.वी. संस्कृति ने मानव मात्र को
पाश्चात्य कवि शेली की उक्त पंक्तियां इस सिद्धांत पर बहुत दूर कर दिया है। आज हर व्यक्ति चाहता है कि 'घर का
सार्थक सिद्ध होती है- आज पतझड़ है तो कल बसंत जरूर टी.वी. चले पड़ोसी की जान जले' । उक्त भावना सम्पूर्ण विश्व
आएगा। सकारात्मक सोच आशावाद पर टिकी हुई है। श्रेष्ठि को नफरत की आग में धकेल देगी। ऐसी स्थिति में जियो और
कवि जयशंकर प्रसाद ने ठीक ही कहा था आशा पर ही आकाश जीने दो की संस्कृति ही मानवमात्र का कल्याण कर सकती है।
टिका है, अर्थात् आशावाद जैन पत्रकारिता का महत्वपूर्ण सूत्र है जिसमें हम सम्पूर्ण विश्व के मंगल की कामना करें, हमारा और इसी आशावाद से ही सकारात्मक सोच का विकास होता विकास उसके साथ ही सभी प्राणियों का भी विकास हो। उक्त है। यही सकारात्मक चिंतन मनुष्य को मनुष्य से जोड़ते हुए विश्व भावना ही जैन पत्रकारिता को पत्रकारिता के अन्य विधाओं से कल्याण की कामना करता है। पृथक कर एक विशिष्ट स्थान पर पहुंचाती है।
प्रधान सम्पादक, नई विधा, नीमच जैन पत्रकारिता में शिक्षा को विशेष महत्व दिया है। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति स्वयं की एवं समाज की उन्नति कर सकता है। समाज की उन्नति से ही राष्ट्र का कल्याण संभव है। यही कारण है कि जैन पत्रकारिता में जैन गुरूकुलों, शिक्षा संस्थानों की स्थापना पर जोर दिया गया।
०अष्टदशी / 1430
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