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________________ लिए यह एक पत्र एक अभिनव, अनूठी अन्तः सृष्टि का बोध कराता है । अदृश्य में से झाँकते उसके इस लावण्य को भी निहारना आप न भूलें । "छः वर्षों से आस्ट्रिया के दक्षिणी भाग में निराशा और पस्तहिम्मती की जिन्दगी बिता रही हूँ तुमने युद्ध के घिनौने समाचार पढ़े होंगे, लेकिन उसके असली निर्घृण क्रूर रूप को तुम लोगों ने नहीं देखा। देखते तो मेरी ही तरह तुम लोग भी मनुष्यजाति की जययात्रा के प्रति शंकालु हो जाते... तूने 'बाणभट्ट की आत्मकथा' छपवा दी, यह अच्छा ही किया । पुस्तक रूप में न सही, पत्रिका रूप में छपी कथा को देख सकी है, यही क्या कम है। अब मेरे दिन गिने-चुने ही रह गए हैं... मैं अब फिर लोगों के बीच नहीं आ सकूँगी। मैं सचमुच संन्यास ले रही हूँ । मैने अपने निर्जन वास का स्थान चुन लिया है। यह मेरा अन्तिम पत्र है 'आत्मकथा' के बारे में तूने एक बड़ी गलती की है तूने उसे अपने ' कथामुख' में इस प्रकार प्रदर्शित किया है मानो वह 'आटो-बॉयोग्राफी' हो ले भला तूने संस्कृत पढ़ी है ऐसी ही मेरी धारणा थी, पर यह क्या अनर्थ कर दिया तूने? बाणभट्ट की आत्मा शोण नद के प्रत्येक बालुका-कण में वर्तमान है छि:, कैसा निर्बोध है तू, उस आत्मा की आवाज तुझे नहीं सुनाई देती ? तुझे इतना प्रमाद नहीं शोभता। I | उस भाग्यहीन बिल्ली ने बच्चों की एक पल्टन खड़ी कर मैं कहाँ तक सम्हालूँ । जीवन में एक बार जो चूक दी है। हो जाती है वह हो ही जाती है। इस बिल्ली का पोसना भी एक भूल ही थी। तुमसे मेरी एक शिकायत बराबर रही है। तू बात नहीं समझता। भोले, 'बाणभट्ट' केवल भारत में ही नहीं होते । इस नर - लोक से किन्नर - लोक तक एक ही रागात्मक हृदय व्याप्त है तूने अपनी दीदी को कभी समझने की चेष्टा भी की! प्रमाद, आलस्य और क्षिप्रकारिता तीन दोषों से बच । अब रोज-रोज तेरी दीदी इन बातों को समझाने नहीं आएगी। जीवन की एक भूल - एक प्रमाद एक असंमजस न जाने कब तक दग्ध करता रहता है । मेरा आशीर्वाद है कि तू इन बातों से बचा रहे । दीदी का स्नेह । के" इसे पढ़ कर आचार्यजी के मन में जो प्रतिक्रिया हुई उसका भी उल्लेख यहाँ आवश्यक है - "मुझे याद आया कि दीदी उस दिन (राजगृह से लौटने के दिन) बहुत भाव-विह्वल थीं। उन्होंने (राजगृह में मिले) एक श्रृंगाल की कथा सुनानी चाही थी। उनका विश्वास था कि वह श्रृंगाल बुद्धदेव का समसामयिक था क्या बाणभट्ट का कोई समसामयिक जन्तु भी उन्हें मिल गया था ? शोण नद के अनन्त बालुका-कणों में से न जाने किस कण ने बाणभट्ट की आत्मा की यह मर्मभेदी पुकार दीदी को सुना दी थी। हाय, उस वृद्ध हृदय में कितना परिताप संचित है। अखियवर्ष की " Jain Education International यवनकुमारी देवपुत्र - नन्दिनी क्या आस्ट्रिया- देशवासिनी दीदी ही हैं। उनके इस वाक्य का क्या अर्थ है कि 'बाणभट्ट केवल भारत में ही नहीं होते । आस्ट्रिया में जिस नवीन 'बाणभट्ट' का आविर्भाव हुआ था वह कौन था हाय, दीदी ने क्या हम लोगों के अज्ञात अपने उसी कवि प्रेमी की आँखों से अपने को देखने का प्रयत्न किया था... दीदी के सिवा और कौन है जो इस रहस्य को समझा दे ? मेरा मन उस 'बाणभट्ट' का सन्धान पाने को व्याकुल है। मैंने क्यों नहीं दीदी से पहले ही पूछ लिया । मुझे कुछ तो समझना चाहिए था लेकिन 'जीवन में जो भूल एक बार हो जाती है वह हो ही जाती है !" अब दीदी के पत्र पर पुन: ध्यान दें। Immortal spirit of the dead जिसे आस्ट्रिया की उस वृद्धा ने अपने अंदर realise किया था, उनका पत्र उस realisation की अभिव्यक्ति है। दृश्य और स्पृश्य के इस छोटे से जगत के पार किन्नर लोक तक फैले एक ही रागात्मक हृदय के साथ तादात्म्य दीदी को युद्ध की विभीषिका के बीच शोण नद के प्रत्येक बालुका-कण में बाणभट्ट की आत्मा के अस्तित्व की अनुभूति देता है । वही तादात्म्य आस्ट्रिया में भी उनके बाणभट्ट से 'साक्षात्कार' का साक्षी बनता है। सूक्ष्म जगत में दूरी का बन्धन नहीं । बाणभट्ट जन्में और मर गए, यह केवल स्थूल पर टिकी अपारदर्शी आंखों का सत्य है, वहाँ का नहीं आलस्य, प्रमाद और क्षिप्रकारिता से मुक्त दीदी की आत्मा देह के भीतर भी विदेह में रमती थी वह अन्तर्जगत की उस रागात्मक लय से अनुबन्धित थी जो अद्वैत रूप में सर्वत्र व्याप्त है और इसलिए शोष नदी की लहरों ने उन्हें वह सब कह दिया जो वे हमें नहीं बतलाती और इसीलिए उसके तट पर बिछे रजकणों ने अक्षर बन कर उनके लिए अतीत के वे पृष्ठ खोल दिए जिन्हें हम नहीं पढ़ पाते । आस्ट्रिया की वह वृद्धा, जिसे मैंने कभी देखा नहीं, पाँच दशकों से अनजाने रूप में मेरे मन में छाई रही हैं। 'भोले बाणभट्ट केवल भारत में नहीं होते' इस एक वाक्य में उन्होंने एक महाग्रन्थ की ही रचना कर दी। महाग्रन्थ या महापुरुष, ये किसी को भी सम्पूर्ण जीवनचर्या नहीं सिखाते। यह दायित्व वे कभी लेते ही नहीं वे केवल हमारी अन्तश्चेतना को जागृत करते हैं और हमें सूत्र देते हैं, उस रागात्मक हृदय के साथ आत्मानुभूति का, जो नर लोक से किन्नर लोक तक व्याप्त है। 'बाणभट्ट केवल भारत में ही नहीं होते' • यह कथन वैसा अपनी वृद्धावस्था को भूल कर सत्य की खोज में भटकती, हर व्यक्ति में बाणभट्ट को देखती, एक जन्तु की आँखों में बुद्ध के संदेश को पढ़ती उस आस्ट्रियन महिला ने मुझे उन अच्छाइयों को, जिनसे प्रकृति ने जड़ और चेतन सबको समान रूप से अलंकृत किया है, देखने की दृष्टि दी, जिनके पास से मैं उस कथन को याद रखे बिना यों ही निकल जाता सर आर्थर कोनन डोयल के कथा-साहित्य को ― , ० अष्टदशी / 137 For Private & Personal Use Only - - www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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