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Specialisation के युग में (जो कि आज अवश्यक बन मुकाबले में अहमदाबाद कानपुर गांव हैं। किसी समय वर्धा गयी है) आधी जिन्दगी तो वैसे ही बीत जाती है।
कितना उत्तम शहर जाना जाता था। आज वह किसी छोटे गांव आज का सबसे बड़ा खतरा है मनुष्य की संवेदना का से भी महत्वहीन हो गया है। इन और ऐसी कई समस्याओं के समाप्त हो जाना। वैज्ञानिक और तकनीकी विकास ने आज लिए हमें अपनी शिक्षा पद्धति को संयोजित एवं सार्थक बनाना मनुष्य को एकाकी-सा बना दिया है। सामाजिक विघटन. होगा। इसके लिए कुछ विचार निम्ननुासार हैं: पारिवारिक विघटन ने हमें एक दूसरे से बिल्कुल अलग-सा कर १. निजी शिक्षा संस्थायें बन्द हों - शासकीय शिक्षा दिया। उन्मुक्त वासनाओं के कारण मर्यादायें विनष्ट होती जा रही संस्थाओं का ठीक प्रबन्धन न होने और शिक्षा स्तर सुधारने की हैं। मर्यादाओं का इस प्रकार नष्ट होना क्या सामाजिक ताने-बाने दृष्टि से हमने निजी शालाओं की छूट दी। परिणाम स्वरूप सारे को विच्छिन्न ही नहीं,तोड़ मरोड़ कर नष्ट नहीं कर देगा? क्या ही निजी स्कूल अंग्रेजी माध्यम से होकर शिक्षा प्रवेश में डोनेशन हम एक अति की ओर नहीं बढ़ रहे हैं। क्या मर्यादायें निरी व्यर्थ का रिवाज आया। एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में हो गई हैं? और यह भी स्पष्ट दिखता है कि मर्यादाओं को अवांछित स्पर्धा उदित हुई। व्यवसायीकरण हुआ और शिक्षा की आडंबर, दीन, दकियानुसी विचार, पुराण पंथी मानने वाले भी दुकाने यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाने लगी। निजी युनिवर्सिटियों की, बहुत हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रारम्भिक वर्षों में लोग "धार्मिक व्यावसायिक कॉलेजों की भरमार हो गई है। हर क्षेत्र में प्रबंधन शिक्षण' क्यों कैसे कैसा और किस प्रकार का हो इस पर का राग अलापा जा रहा है जो स्वामी और सेवक के बीच की विचार करते थे। आज तो धर्म और नैतिकता का कोई नाम भी कड़ी बनकर केवल उत्पीड़न को ही बढ़ाता है। बालकों में वर्ग लेना नहीं चाहता है। हम अपनी संस्कृति को भुलाते जा रहे हैं। भेद बड़े छोटों का विवाद फिर मुखर होने की पूर्व भूमिका है। अंतराष्ट्रीयकरण हो रहा है। विदेशी कंपनियों का स्वतंत्र रूप से
२. व्यावसायिक शिक्षा : पुस्तकीय ज्ञान के अतिरिक्त या भारतीय कंपनियों के साथ मिल-जुलकर अरबों-खरबों रुपये व्यावसायिक शिक्षा भी आज जरुरी हो गई है। आखिर पेट भरने की पूंजी लगाकर इतने बड़े-बड़े उद्योग धंधे लगाना कि जिसकी के लिए आदमी को कुछ तो हुनर जानना जरुरी है। इससे वह वह कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। आज सहज हो रहा है कि
स्वावलंबी होगा और आर्थिक दृष्टि से चिन्ता मुक्त। हमने व्यापार के सभी क्षेत्रों में अपने दरवाजे खोले ही नहीं उन्हें
३. चिन्तन, बुद्धि, रचनात्मक प्रतिभा आदि मानवीय तोड़कर कहीं कूड़े में फेंक दिये हैं। संसार की इस परिस्थिति
__क्षमताओं में निखार लाने के लिए साहित्य और कला का शिक्षण में हमारी शिक्षा कैसी हो? यह आज नहीं तो कल अवश्य ही
भी किसी स्तर तक जरुरी है। विचारणीय प्रश्न बनकर आयेगा। देश के धनपतियों का साग,
. ४. विज्ञान और टेक्नोलोजी के विकास से वैश्वीकरण भाजी, किराना जैसे छोटे गिने जाने वाले व्यवसायों में कूद पड़ना, अरबों-खरबों की पूंजी लगाकर ऐसे सामान्य व्यवसाय
जितनी तीव्रगति से बढ़ता जा रहा है उससे ऐसा लगता है कि करना और परिणाम स्वरूप सैकड़ों हजारों छोटे व्यावसइयों का
आज नहीं तो कल अवश्य ही सारा संसार एक हो जायेगा। देशों व्यवसाय छीनकर उन्हें बेकार बना देना। भीषण विभीषिका है
की सीमाएं समाप्त होकर विश्व पूरा ही एक देश बन जायेगा। यह तो। इन सबके मूल में जायें तो इनका मुख्य कारण है मुद्रा
लोगों में अन्तर्राष्ट्रीय नौकरियों के लिए आज जो दौड़ देखी जा
रही है वह एक दिन इस सपने को अवश्य पूरा करेगी। ऐसी की अनाप-सनाप वृद्धि। अर्थ के कारण यह समस्या इतनी बड़ी समस्या बन जायेगी, यह तो किसी ने जाना भी नहीं था। पैसे की
स्थिति में सारे संसार की भाषा, मुद्रा, व्यापार, उद्योग एवं शासन रेलम-छेलम ने, नव लक्षाधीशों ने सारी सामाजिक व्यवस्था को
प्रबन्ध आदि सब में एकात्मकता आ जायेगी। कल के उस विश्व ही अस्त-व्यस्त कर दिया। संभवत: इसके मूल में भी कहीं
के लिए हमें तैयारी तो आज से ही करना पड़ेगी। इसीलिए भाषा जीवन स्तर ऊँचा उठाने का सिद्धांत ही रहा होगा। पहले ग्रामीण
शिक्षण प्रारंभिक वर्षों में (कक्षा १-२ एवं ३ तक) क्षेत्रीय भाषा और शहरी दो ही आर्थिक सामाजिक भेद थे। इस भेद को भी
का हो। कक्षा ४ से ७ तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा के साथ मिटाने के लिए श्री विनोवा भावे एवं गांधी ने ग्राम स्वावलंबन की
राष्ट्र भाषा हिन्दी का शिक्षण भी हो तथा उससे आगे चलकर हाई बात कही थी। आज तो यह भेद इतना बढ़ गया है कि हर छोटे
स्कूल कक्षा १० तक मातृभाषा, राष्ट्रभाषा के साथ अंतर्राष्ट्रीय छोटे ग्राम बस्ती में यह भेद नजर आने लग गया है। बम्बई देहली
भाषा अंग्रेजी के अध्यापन की नीति भी हो। नवोदय विद्यालयों के मुकाबले में मद्रास कलकत्ता गांव हैं और मद्रास कलकत्ता के
ने इस विषय में जो भ्रान्तियें थी वे सब दूर कर दी हैं। कुछ रही भी होंगी तो वे कुछ वर्षों में ही निरस्त हो जायेंगी।
० अष्टदशी / 1280
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