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पद्धति और शिक्षा को जीविकोपार्जन का साधन मानना दोनों ही के अपेक्षित लक्ष्य प्राप्त किये जा सकते हैं। प्रतिभा पलायन और समान रूप से जिम्मेदार हैं। गुरु-शिष्य की चर्चा करते हुए जैन शिक्षा के व्यावसायीकरण को रोकने के लिए हमें इमानदारी साहित्य में कहा गया है कि नाना प्रकार के परिषहों को सहन पूर्वक प्रयास करने होंगे तभी हम एक सभ्य, सुसंस्कृत और करने वाले, लाभ-हानि में सुख-दु:ख रहित रहने वाले, अल्प नैतिक समाज की रचना कर सकेंगे। इच्छा में संतुष्ट रहने वाले, ऋद्धि के अभिमान से रहित, उस
सहनिदेशक, प्रकार सेवा सुश्रुषा में सहज तथा गुरु की प्रसंशा करने वाले ऐसे
आगम-अहिंसा, समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर (राज) ही विविध गुणों से सम्पन्न शिष्य की कुशलजन प्रशंसा करते हैं। समस्त अहंकारों को नष्ट करके जो शिक्षित होता उसके बहुत शिष्य होते हैं किन्तु कुशिष्य के कोई भी शिष्य नहीं होते। शिक्षा किसे दी जाए इस सम्बन्ध में जैन साहित्य में कहा गया है कि किसी शिष्य में सैकड़ों दूसरे गुण क्यों न हो किन्तु उसमें यदि विनय गुण नहीं है तो ऐसे पुत्र को भी वाचना नहीं दी जाए फिर गुण विहीन शिष्य को तो क्या? अर्थात् उसे तो वाचना दी ही नहीं जा सकती। चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में ज्ञान गुण की चर्चा करते हुए जो विवेचन किया गया है वह दृष्टव्य है। वहां गया है कि वे पुरुष धन्य हैं जो जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट अतिविशिष्ट ज्ञान को जानने हेतु समर्थ नहीं है फिर भी जो चारित्र से सम्पन्न है वस्तुत: वे ही ज्ञानी हैं। (गाथा ६८)
ज्ञान से रहित क्रिया और क्रिया से रहित ज्ञान तारने वाला अर्थात् सार्थक नहीं होता जबकि क्रिया में स्थिर रहा हुआ ज्ञानी संसाररूपी भवसमुद्र को तैर जाता है (गाथा ७३)। आगे यह भी कहा है कि जिस प्रकार शस्त्र से रहित योद्धा और योद्धा से रहित शस्त्र निरर्थक होता है उसी प्रकार ज्ञान से रहित क्रिया और क्रिया से रहित ज्ञान निरर्थक होता है (गाथा ७५)।
सम्यक् चारित्र की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि सम्यक् दर्शन से रहित व्यक्ति को समय्क् ज्ञान नहीं होता है और सम्यक् ज्ञान से रहित व्यक्ति को सम्यक् चारित्र नहीं होता है तथा सम्यक् चारित्र से रहित व्यक्ति का निर्वाण नहीं होता है (गाथा ७६)। इस प्रकार जैन साहित्य में व्यक्ति की योग्यता का मापदण्ड उसके जीवन मूल्यों में नैतिकता और सदाचार से रहा है जिसकी आज महती आवश्यकता है।
जैन शास्त्रों में वर्णित गुरु-शिष्यों का यह सम्बन्ध उच्च नैतिकता के धरातल पर आधारित है आज न तो ऐसे गुरु उपलब्ध हैं और न ही ऐसे शिष्य। समाज और शासन को इस दिशा में ईमानदारी पूर्वक प्रयास करने चाहिये कि बच्चों को व्यावहारिक शिक्षा के साथ ही नैतिक शिक्षा भी देने की व्यवस्था की जाये। निष्ठावान शिक्षकों का सम्मान भी गरिमा के साथ किया जाये और समाज में उन्हें आर्थिक समृद्धि उपलब्ध कराते हुए उच्च स्थान प्रदान किया जाये तो शिक्षा के स्वरूप में सुधार
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