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६ : सरस्वती - बरवपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थं
गुणानुवाद करके ही पुजकको यह क्रिया समाप्त करना चाहिए। इसके बाद वह जगतके कल्याणकी भावनासे शान्तिपाठ व इसके बाद आत्मकल्याणकी भावनासे स्तुतिपाठ पढ़े । ये दोनों बातें तीर्थंकर की अरहंत अवस्थामें हो सम्भव हो सकती हैं, कारण कि तीर्थंकरका हितोपदेशीपना इसी अवस्था में पाया जाता है ।
७--सातवीं क्रिया विसर्जनकी है । इस समय पूजक यह समझ कर कि भगवानकी मुक्ति हो रही है, अपरिमित हर्षसे पुष्पवर्षा करता हुआ विसर्जनकी क्रियाको समाप्त करें । जयमाला पढ़ते हुए भी यदि पुष्पवर्षा की जाय तो अनुचित नहीं, क्योंकि उससे हर्षातिरेकका बोध होता है, परन्तु अर्ध चढ़ाना तो पूर्वोक्त रीतिसे अनुचित ही हैं ।
यह हमारी द्रव्यपूजाकी विधिका अभिप्राय हैं । और पूजकको प्रतिदिन इसी अभिप्रायसे द्रव्यपूजामें भाग लेना चाहिये | ऐसी प्रक्रिया तर्क और अनुभव विरुद्ध नहीं कही जा सकती है । तथा जो चार आक्षेप पहले बतला आये हैं उनका समाधान भी इसके जरिये हो जाता है कारण कि प्रतिमा तीर्थंकर की किसी अवस्था विशेष की नहीं है वह तो सामान्यतौरपर तीर्थंकरकी प्रतिमा है, उसका अवलम्बन लेकर हमलोग अपने लिए उपयोगी तीर्थंकरकी स्वर्गावतरणसे लेकर मुक्तिपर्यन्तकी जीवनीका चित्रण किया करते हैं । यदि हम अवतरण करते हैं तो तीर्थंकरके स्वर्गसे चय कर गर्भ में आते समय, यदि अभिषेक करते हैं तो तीर्थङ्करके जन्मके समय, यदि सामग्री चढ़ाते हैं तो तीर्थङ्करकी साधु अवस्थामें, जिस तरह अवतरण द्वारा मुक्त तीर्थङ्करको बुलाते नहीं, उसी प्रकार विसर्जनके द्वारा भेजते भी नहीं, केवल विसर्जन के द्वारा मोक्ष कल्याणकका उत्सव मनाया करते हैं । इस तरह पूर्वोक्त आक्षेपोंके होनेकी सम्भावना भी हमारी द्रव्यपूजाको प्रक्रियामें नहीं रह जाती है ।
ऐसा मान लेनेपर हमारा कर्त्तव्य हो जाता है कि सिद्धोंकी पूजा उनकी प्रतिमाका अवलम्बन लेकर केवल उनके स्वरूपका अनुवाद व चिन्तवनमात्रसे करें, तीर्थङ्करके समान अवतरणसे लेकर विसर्जन पर्यन्तकी क्रियाओं का समारोह न करें क्योंकि यह यह प्रक्रिया तो सिर्फ तीर्थङ्करको पूजामें ही सम्भव है । हमारे शास्त्र एक दूसरे प्रकारसे भी उस अभिप्रायकी पुष्टि करते हैं-
प्रतिमा जितनी बनाई जाती हैं वे सब तीर्थंकरोंकी बनायी जाती हैं और प्रतिष्ठा करते समय तीर्थंकरकेही पाँच कल्याणकोंका समारोह किया जाता है, क्योंकि तीथकर ही मोक्षमार्गके प्रवर्तक हैं और उन्हीं के जीवनमें वह असाधारणता (जिसका कि समारोह हम किया करते हैं ) पायी जाती है । सामान्यकेवलियोंकी इस तरहसे प्रतिमायें प्रतिष्ठित नहीं की जातीं, क्योंकि वे मोक्षमार्गके प्रवर्तक नहीं माने जाते और न उनका जीवन हो इतना असाधारण रहता है। केवल उन्होंने शुद्ध आत्मस्वरूपकी प्राप्ति कर ली है । उनकी त्यागवृत्तिका ध्येय भी उनके जीवनमें आत्मकल्याण रहा है, इसके लिये उनकी पूजा केवल सिद्ध-अवस्थाको लक्ष्य करके की जाती है । यही कारण है कि सिद्ध प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा पंचकल्याणक रूपसे न करके केवल मोक्षकल्याणक रूपसे की जाती है । अरहन्त और सिद्धको छोड़कर अन्य किसीकी प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा करनेका रिवाज हमारे यहाँ नहीं है। इसका कारण यह है कि आचार्य, उपाध्याय और मुनि ये तीनों सामान्य तौरसे मुनि ही हैं । मुनियोंका अस्तित्व शास्त्रोंमें पंचमकालके अन्त तक बतलाया है, इसलिये हमारे कल्याणमार्गका उपदेश, जो साक्षात् रूपसे विद्यमान है, उसकी मूर्तिको आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? क्योंकि मूर्ति प्रतिष्ठाका उद्देश्य तो अपने कल्याणमार्गकी प्राप्ति ही हैं । पूजा करते समय पूजकका कर्त्तव्य यह अवश्य कि वह जिन तोर्थङ्करकी प्रतिमा अपने समक्ष हो उनकी द्रव्यपूजा ऊपर कहे अभिप्रायको लेकर करे, जिनकी प्रतिमा न हो, उनकी पूजा यदि वह करना चाहता है तो उनको कल्पना दूसरे तीर्थंकरकी
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