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६ / संस्कृति और समाज : ७
प्रतिमामें करके उनकी द्रव्यपूजा करे, क्योंकि जब हमारी पूजा ही कल्पनामय है तो दूसरे तीर्थङ्करकी प्रतिमामें दूसरे तीर्थङ्करकी कल्पना अपने भावोंकी विशुद्धिके लिये अनुचित नहीं कही जा सकती।
तथा जिस प्रकार सिद्धोंकी पूजा उनके स्वरूपका अनुवाद व चितनमात्र ही युक्ति-अनुभवगम्य कही जा सकती है उसी प्रकार शास्त्रकी पूजा केवल उसकी बाँचना. पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश रूप स्वाध्याय करना ही है। तीर्थक्षेत्रोंकी पूजा उनका अवलंबन लेकर भगवानके गुणों की भावना मानना, रत्नत्रयकी पूजा उनकी प्राप्तिका प्रयत्न करना, धर्म व व्रतोंकी पूजा उनका यथाशक्ति पालन करना समझना चाहिये। तीर्थंकरोंके समान उनकी अवतरणसे लेकर विसर्जन पर्यन्त सात प्रकारसे द्रव्यपूजा करना तो केवल हमारी तर्क और अनुभवकी शून्यताका द्योतक है। मुझे विश्वास है कि समाज इस तरहसे पूजाके रहस्यको समझ कर इसमें सुधार करनेका प्रयत्न करेगा।
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