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________________ ६ / संस्कृति और समाज : ५ 1 मनाव। २-दूसरी क्रिया स्थापनकी है। इस समय पूजक यह समझकर कि तीर्थंकर माताके गर्भमें आ रहे हैं। प्रतिमामें गर्भप्रवेशोन्मुख तीर्थंकरके रूपको देखता हआ बडे आनन्दके साथ "अत्र तिष्ठ-तिष्ठ" कहता हुआ पुष्पवर्षा करके गर्भस्थिति-महोत्सव मनावे । ३-तीसरी क्रिया सन्निधिकरणकी है। जिस प्रकार तीर्थकरका जन्म हो जानेपर अभिषेकके लिए सुमेरु पर्वतपर ले जानेके उद्देश्यसे इन्द्र उनको अपनी गोदमें लेता है उसी प्रकार इस क्रियाके करते समय पूजक यह समझकर कि "तीर्थकरका जन्म हो गया है" प्रतिमामें जन्मके समयके तीर्थकरकी कल्पना करता हआ उनके जन्म-अभिषेककी क्रिया सम्पन्न करनेके लिये 'मम सन्निहितो भव-भव" कहकर पुष्पवर्षा करते हुए प्रतिमाको यथास्थानसे उठाकर अपनी गोदीमें लेता हआ बड़े उत्साहके साथ सन्निधिकरणमहोत्सव मनावे । इसके अनन्तर वह कल्पित सुमेरु पर्वतकी कल्पित पांडुक शिलापर इस प्रतिमाको स्थापन करे । ४--चौथी क्रिया अभिषेककी है। इस समय पूजक घंटा, वादित्र आदिके शब्दोंके बीच मंगलपाठका उच्चारण करता हआ बड़े समारोह के साथ प्रतिमाका अभिषेक करके तीर्यकरके जन्माभिषेककी क्रिया सम्पन्न करें। यह चारों क्रियायें तीर्थकरके असाधारण महत्त्वको प्रकट करनेवाली हैं। इनके द्वारा पूजकके हृदयमें तीर्थकरके असाधारण व्यक्तित्वकी गहरी छाप लगती है। इसलिये इनका समावेश द्रव्यपूजामें किया गया है । इसके बाद तीर्थकरके गार्हस्थ्य जीवनमें भी कुछ उपयोगी घटनायें घटती है। परन्तु असाधारण व नियमित न होनेके कारण उनका समावेश द्रव्यपूजामें नहीं किया गया है। ५--यह क्रिया अष्टद्रव्यके अर्पण करनेकी है । पूजकका कर्तव्य है कि वह इस समय प्रतिमामें तीर्थंकरकी निग्रंथ-मनि-अवस्थाकी कल्पना करके आहारदानकी प्रक्रिया सम्पन्न करनेके लिए सामग्री चढावें । तीर्थङ्करकी निग्रंथ-मुनि-अवस्थामें इसी तरहकी पूजा उपादेय कही जा सकती है। इसलिए बाह्यसामग्री चढ़ानेका उपदेश शास्त्रोंमें पाया जाता है । इस क्रियाके द्वारा पूजकके हृदयमें पात्रोंके लिए देनेकी भावना पैदा हो। इस उद्देश्यसे ही इस क्रियाका विधान किया गया है । किसी समय हम लोगोंमें यह रिवाज चालू था कि जो भोजन अपने घर पर अपने निमित्तसे तैयार किया जाता था उसीका एक भाग भगवानकी पूजाके काममें लाया जाता था, जिसका उद्देश्य यह था कि हम लोगोंका आहार-पान शुद्ध रहे, परन्तु जबसे हम लोगोंमें आहारपानकी शुद्धताके विषयमें शिथिलाचारी हुई, तभी से वह प्रथा बन्द कर दी गई है । और मेरा जहाँ तक खयाल है कि कहीं-कहीं अब भी यह प्रथा जारी है । ६--छठी क्रिया जयमालाकी है । जयमालाका अर्थ गुणानुवाद होता है । गुणानुवाद तभी किया जा सकता है जबकि विकास हो जावे । केवलज्ञानके हो जानेपर तीर्थकरके गुणोंका परिपूर्ण विकास हो जाता है। इसलिए जयमाला पढ़ते समय पूजक प्रतिमामें केवलज्ञानी-सयोगी-अर्हन्त तीर्थकरकी कल्पना करके उनके गुणोंका अनुवाद करें। यही उस समयकी पूजा है। तीर्थ करके सर्वज्ञपने, वीतरागपने और हितोपदेशपनेका भाव पूजकको होवे, यह उद्देश्य इस क्रियाके विधानका समझना चाहिए । यही कारण है कि जयमालाके बाद शान्तिपाठके द्वारा जगतके कल्याणकी प्रार्थना करते हुए पूजकको तदनन्तर प्रार्थना पाठके द्वारा आत्मकल्याणकी भावना भगवानकी प्रतिमाके सामने प्रकट करनेका विधान पूजाविधि में पाया जाता है। जयमाला पढनेके बाद अर्घ चढ़ानेकी जो प्रवृत्ति अपने यहाँ पायी जाती है वह ठीक नहीं, बयोंकि अरन्त अवस्थामें तीर्थंकर कृतकृत्य सर्वाभिलाषाओंसे रहित होनेके कारण हमारे द्वारा अर्पित किसी भी वस्तुको ग्रहण नहीं करते है । अतएव केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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