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२२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ स्वाभिमान और प्रज्ञाको मूर्ति .५० रविचन्द्र जैन, शास्त्री, दमोह
श्रद्धेय पं० जी उन व्यक्तियोंमें है, जो अपना जीवन स्वयं निर्माण करते है। वे स्वतंत्र विचारक, गम्भीरचेता, महान् अध्येता और समयानुकूल समाजसुधारक है । उन्हें अपना प्रदर्शन बिलकुल पसन्द नहीं है । मौन कार्य करना ही उन्हें प्रिय है । स्पष्टवादिता, भौतिकतासे दूर रहना, प्रतिफलकी अपेक्षा न करना और सेवादष्टि रखना ये आपके सहज गण हैं। राष्ट, समाज और साहित्य इनके लिए समर्पित जीवन इनका लक्ष्य है। इनके द्वारा की गयी, इनकी सेवा अभिनन्दनीय है।
' जब भी विद्वानोंका प्रकरण आता है तो पण्डितजीका सादगीपूर्ण रहन-सहन, निश्छल वृत्ति, स्वतन्त्र व्यवसाय और गरिमामण्डित व्यक्तित्व आँखोंके सामने आ जाता है । इतने उद्भट विद्वान् होते हुए भी सामाजिक नौकरीसे कोसों दूर रहकर आपने अपना स्वतः व्यापार किया। फिर भी उसमें अनासक्त रहते हुए राष्ट्र, समाज और साहित्यको सेवामें संलग्न हैं । आपने किसीकी जी हजूरी करके अपना स्तर नीचे नहीं किया । स्वाभिमान आपका पहला गुण रहा है । इससे उन्हें जो मान-सम्मान मिला है वह किसी भी व्यक्तिके लिए स्पृहणीय है।
स्वतन्त्र व्यवसायी होनेपर भी आप आगम और उसके सिद्धान्तोंकी रक्षामे निरन्तर संलग्न हैं । फलतः कई ग्रन्थोंकी रचना आपके द्वारा हुई है। यह भी सुयोगकी बात है कि आपके परिवारमें भारतीय स्तरके दो विद्वान भतीजों-५० बालचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री और डॉ० पं० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य के द्वारा भी जिनवाणीकी सेवा हो रही है। इन्होंने भी अनेक ग्रन्थोंका सम्पादन-हिन्दी अनुवाद और लेखन किया है । यह समाजके लिए आपकी और आपके परिवारको उल्लेखनीय देन है ।
आपकी सामाजिक प्रवृत्तियाँ भी कम नहीं रहीं । गजरथविरोध, दस्सापूजाधिकार आदिमें सक्रिय भाग लिया और उनमें सफलता भी प्राप्त की। आप स्वतन्त्रता-सेनानी भी हैं। ऐसे जीवट एवं कर्मठ विद्वत्प्रवरको हमारी हार्दिक शुभकामनाएँ हैं।
'तुम जियो हजारों साल, सालके होवें वर्ष हजार ।' चिन्तनशील विद्वत्प्रवर .पं० भैयालाल शास्त्री, बीना
विद्वत्प्रवर पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यसे मेरा परिचय सन् १९२५ से है, जब मैं श्री नाभिनन्दन दि० जैन पाठशाला क्षेत्रपाल ललितपुर (उ० प्र०) में अध्ययन करता था और पण्डितजी स्याद्वादमहाविद्यालय, वाराणसीमें पढ़ते थे । आप ग्रीष्मावकाशमें अपने साथियों-पं० परमानन्दजी साहित्याचार्य, पं० बालचन्द्रजी शास्त्री, पं० पद्मचन्द्रजी आदिके साथ क्षेत्रपाल में ठहरते हुए अपनी जन्मभूमि सोरईको जाते थे । उस समय आपसे अनायास भेंट हो जाती थी । व्याकरण बड़ा कठिन विषय माना जाता था, किन्तु आपने अपने अध्ययनका विषय उसे ही बनाया था। इससे छात्रोंको आश्चर्य होता था।
बोनामें श्रीमान् शाह मौजीलालजी कठरया बड़े धार्मिक व्यक्ति थे । उनके एकमात्र कन्या थी, जिसके विवाहकी उन्हें चिन्ता थी । पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने उन्हें बंशीधरजीका नाम सुझाया । वे बनारस गये और बंशीधरजी योग्य अँचे और उनका सम्बन्ध उनकी लड़की लक्ष्मीबाईके साथ हो गया। पण्डितजी बीनामें रहने लगे और कपड़ेका व्यवसाय करने लगे। आपने भाव में अपनी एक बात रखी, कमती-बढ़ती
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