SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 464
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १९३ भी उस निश्चयधर्मका विकास चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयसे प्रारम्भ होता है, इसके पूर्वके गुणस्थानोंसे नहीं होता। (३) जीवके चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें जो निश्चयधर्मका विकास होता है वह उस जीवकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन और निश्चयसम्यग्ज्ञानके रूपमें होता है। इसके पश्चात् जीवके पंचम गुणस्थानके प्रथम समयमें निश्चयधर्मका विकास उस जीवकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप देश विरति निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें होता है तथा इसके भी पश्चात् जीवके निश्चयधर्मका विकास सप्तम गुणस्थानके प्रथम समयमें उस जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप सर्वविरति निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें होता है और जोवमें उसका सद्भाव पूर्वोक्त प्रकार षष्ठ गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थान तक उत्तरोत्तर उत्कर्षके रूपमें विद्यमान रहता है। दशम गुणस्थानके आगे जीवके एकादश गुणस्थानके प्रथम समयमें निश्चयधर्मका विकास जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप औपशमिक यथाख्यात निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें होता है अथवा दशम गुणस्थानसे ही आगे जीवके द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें निश्चयधर्मका विकास उस जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप क्षायिक यथाख्यात निश्चयसम्यकचारित्रके रूपमें होता है तथा यह जीवके आगेके सभी गणस्थानोंमें विद्यमान रहता है। (४) पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि व्यवहारधर्म सम्यग्दर्शनके रूपमें जीवकी भाववती शक्तिका हृदयके सहारेपर होनेवाला परिणमन है और दूसरा व्यवहारधर्म सम्यग्ज्ञानके रूपमें जीवकी भाववती शक्तिका मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला परिणमन है। एवं तीसरा व्यवहारधर्म नैतिक आचार तथा देशविरति व सर्वविरतिरूप सम्यकचारित्रके रूपमें मन, वचन और कायके सहारेपर होनेवाला जीवकी क्रियावती शक्तिका परिणमन है। इस सभी प्रकारके व्यवहारधर्मका विकास प्रथम गुणस्थानमें सम्भव है और अभव्य व भव्य दोनों प्रकारके जीवोंमें हो सकता है। इतना अवश्य है कि उक्त सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानरूप तथा नैतिक आचाररूप व्यवहारधर्मका विकास प्रथम गुणस्थानमें नियमसे होता है क्योंकि इस प्रकारके व्यवहारधर्मका विकास किये बिना अभव्य जीवमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चार लब्धियोंका व भव्य जीवमें इन चारों लब्धियोंके साथ करणलब्धिका विकास नहीं हो सकता है। . प्रथम गुणस्थानमें देशविरति और सर्वविरति सम्यक्चारित्र रूप व्यवहारधर्मके विकसित होनेका कोई नियम नहीं है परन्तु देशविरति सम्यक्चारित्ररूप व्यवहारधर्मका विकास चतुर्थ गुणस्थानमें होकर पंचम गुणस्थानमें भी रहता है । एवं सर्वविरति सम्यकुचारित्ररूप व्यवहारधर्मका पंचम गुणस्थानमें विकास होकर आगे षष्ठसे दशम गुणस्थान तक उसका सद्भाव नियमसे रहता हैं। यहाँ इतना अवश्य ध्यातव्य है कि सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थान तक उस व्यवहारधर्मका सद्भाव अन्तरंगरूपमें ही रहता है। तथा द्वितीय और तृतीय गणस्थानोंमें यथासम्भव रूपमें रहनेवाला व्यवहारधर्म भी अबुद्धिपूर्वक ही रहता है । एकादश गुणस्थानसे लेकर आगेके सभी गुणस्थानोंमें व्यवहारधर्मका सर्वथा अभाव रहता है। वहाँ केवल निश्चयधर्मका ही सदभाव रहता है । क्रियावती शक्तिके परिणमन स्वरूप व्यवहार अविरतिका सद्भाव प्रथम गुणस्थानसे चतुर्थ गुणस्थान तक ही सम्भव है। जोवको मोक्ष की प्राप्ति निश्चय प्रकृतमें मोक्ष शब्दका अर्थ जीव और शरीरके विद्यमान संयोगका सर्वथा विच्छेद हो जाना है । जीव और शरीरके विद्यमान संयोगका सर्वथा विच्छेद चतुर्थदश गुणस्थानमें तब होता है जब उस जीवके साथ बद्ध चार अधाती कर्मोंका सर्वथा क्षय हो जाता है । जीवको चतुर्थदश गुणस्थानकी प्राप्ति तब होती है जब त्रयो २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy