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________________ १९२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानसे प्रभावित होकर अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमन स्वरूप संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंको सर्वथा त्याग कर जो अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप आरम्भी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों के साथ पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ करते हैं उन प्रवृत्तियोंको नैतिक आधारके रूपमें व्यवहारधर्म कहा जाता है। तथा वे ही मनुष्य जब संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंके सर्वथा त्यागपूर्वक आरम्भी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंका एकदेश अथवा सर्वदेश त्याग करते हुए पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ करते हैं तब उन्हें क्रमशः देशविरति अथवा सर्वविरतिरूप सम्यक्चारित्रके रूपमें व्यवहारधर्म कहा जाता है। . प्रसंगवश मैं यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्योंको भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप हृदयके सहारेपर होनेवाला अतत्त्वश्रद्धान व्यवहारमिथ्यादर्शन कहलाता है। और उनकी उसी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला अतत्त्वज्ञान व्यवहारमिथ्याज्ञान कहलाता है। तथा मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान इन दोनोंसे प्रभावित उन मनुष्योंकी क्रियावती शक्तिके परिणाम स्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापभूत जो अशुभ प्रवृत्ति हुआ करती है वह व्यवहारमिथ्याचारित्र कहलाता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि उक्त प्रकारके व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानके विपरीत व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानसे प्रभावित होकर वे अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंका सर्वथा त्याग करते हुए यदि अशक्तिवश आरम्भी पापका अणुमाण भी त्याग नहीं कर पाते हैं तो उनकी वह आरम्भी पापरूप अशुभ प्रवृत्ति व्यवहाररूप अविरति कहलाती हैं। यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जिस प्रकार पूर्वमें मोहनीयकर्मकी उन-उन प्रकृतियोंके यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम पूर्वक होनेवाले भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयसम्यकदर्शन निश्चयसम्यग्ज्ञान व देशविरति, सर्वविरति और यथाख्यात सम्यक्चारित्रके रूपमें निश्चयधर्मका विवेचन किया गया है उसी प्रकार यहाँ प्रथम गुणस्थानमें मोहनीयकर्मकी मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी दोनों प्रकृतियोंके उदयमें भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप मिथ्यात्वभूत भावमिथ्यादर्शन, भावमिथ्याज्ञान और भावमिथ्याचारित्रके रूप में, द्वितीय गुणस्थानमें मोहनीयकर्मकी अनन्तानुबन्धी प्रकृतिके उदयमें भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप सासादनसम्यक्त्वभूत भावमिथ्यादर्शन, भावमिथ्याज्ञान और भावमिथ्याचारित्रके रूपमें एवं तृतीय गुणस्थानमें मोहनीयकर्मकी सम्यक्मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें भाववती शक्तिके परिणामस्वरूप सम्यग्मिथ्यात्वभूत भावमिथ्यादर्शन, भावमिथ्याज्ञान और भावमिथ्याचारित्रके रूपमें निश्चय (भाव) अधर्मका भी विवेचन कर लेना चाहिए । यहाँ भी यह ध्यातव्य है कि चतुर्थ गुणस्थानके जीवमें नव नोकषायोंके उदयके साथ अत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषायोंके सामूहिक उदयमें जीवकी भाववती शक्तिका जो परिणमन होता है उसे भाव-अविरति जानना चाहिये। इसे न तो भावमिथ्याचारित्र कह सकते हैं और न विरतिके रूपमें भावसम्यक्चारित्र ही कह सकते हैं, क्योंकि भावमिथ्याचारित्र अनन्तानुबन्धी कषायके उदयमें होता है और विरतिके लिये कम-से-कम अप्रत्याख्यानावरणका क्षयोपशम आवश्यक है। उपर्युक्त दोनों प्रकारके स्पष्टीकरणोंके साथ ही यहाँ निम्नलिखित विशेषतायें भी ज्ञातव्य है (१) अभव्य जीवोंके केवल प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है जबकि भव्य जीवोंके प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर चतुर्थदश अयोगकेवली गुणस्थान पर्यन्त सभी गुणस्थान सम्भव हैं । (२) निश्चयधर्मका विकास भव्य जीवोंमें ही होता है, अभव्य जीवोंमें नहीं होता। तथा भव्य जीवोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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