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________________ ९६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ अध्यात्मशास्त्रमें विशेष रूपसे निश्चय व व्यवहारनयका कथन पाया जाता है। प्रमुख रूपसे नयके ये ही दो भेद हैं। इन्हें द्रव्याथिक नय और पर्यायाथिक नय भी कहते हैं। जो भेददृष्टि या खण्डदृष्टिको लेकर कथन करता है वह व्यवहारनय है और जो अभेद या अखण्डदृष्टिको लेकर कथन करता है वन निश्चयनय है । अभेदविधिसे जाननेवाले नयको निश्चयनय तथा भेदविधिसे जाननेवाले नयको व्यवहारनय कहा गया है। जिस प्रकार द्रव्यार्थिक व पर्यायाथिक नय श्रुतप्रमाणके अंश होनेसे सत्य है उसी प्रकार निश्चयनय और व्यवहारनय भी श्रुतप्रमाणके अंश होनेसे सत्य है। वस्तुको द्रव्यकी प्रधानतासे जाननेवाला नय द्रव्याथिक नय है और वस्तुको पर्यायकी प्रधानतासे जाननेवाला नय पर्यायाथिक है। निष्कर्ष यह कि वस्तुको अभेदविधिसें जाननेवाला-निश्चय-नय है और वस्तुको भेदविधिसे जाननेवाला व्यवहारनय है। उभय नयोंके सम्बन्धमें कहा गया है : "स्वाश्रितो निश्चय" तथा "पराश्रितो व्यवहारः" जिस समय व्यवहारनयसे कथन किया जाता है उस समय निश्चयनय गौण हो जाता है और जिस समय निश्चयनयसे कथन किया जाता है उस समय व्यवहारनय गौण हो जाता है। उभय नय अपनी-अपनी जगह सम्यक् हैं । एक नय अपर नयको गौण भले ही कर ले, तथापि उसको समाप्त नहीं कर सकता। यदि इस प्रकार सम्भव हो तो समस्त नय निरस्त होकर निरपेक्ष हो जाएँगे, तब नयोंका जो सापेक्षवाद सिद्धान्त है वह मिथ्या हो जाएगा। एक ही नयको विश्वस्त मान लेना या एक ही नयको आधार बना लेना एकान्त है और उभय नयोंको समझकर उभयरूपमें कथन करना स्याद्वाद है। स्याद्वादके द्वारा समस्त विवाद व कलह शान्त हो जाते हैं। वस्तुको सर्वथा एकान्त समझना मिथ्यात्व है। स्याद्वादके आश्रय द्वारा ही वस्तुमें निहित अनन्तधर्मोका ( विभिन्न नयोंसे ) ज्ञान होता है। नय तो स्याद्वादके अङ्गोपाङ्ग हैं । नय न तो पूर्ण सत्य है और न असत्य है, अपितु सत्यांश है। किसी वस्तुका पूर्ण ज्ञान तभी होगा जब उसका सर्वाङ्ग अध्ययन हो । जो सत्यदृष्टा है या सत्यका प्रेमी है उन्हें तो सदा सापेक्षताके सिद्धान्तको स्वीकार करना होगा। व्यवहारनय और निश्चयनयमें साधन व साध्यका सम्बन्ध है। जिस प्रकार मिट्टी साधन है, घड़ा साध्य है। जैनागमोंके कथनानुसार व्यवहारनय बाह्यदृष्टिपरक है और निश्चयनय आभ्यन्तरदृष्टि वाला है। यथा--यह जीव हाड़, मांस, रक्त, मज्जा, वीर्य आदिका पिण्ड है, कर्मबद्ध है, यह बाह्यदष्टि है या व्यवहारनयका कथन है और यह जीव शुद्ध, बुद्ध , अविनाशी, अजरामर व सहजानन्दमय है, यह भीतरी दृष्टि है या निश्चयनयका कथन है-दोनोंमेंसे किसीको असत्य या मिथ्या नहीं कहा जा सकता--सापेक्षतः दोनों सत्य हैं और निरपेक्षतः दोनों मिथ्या है। आ. कुन्दकुन्दने समयसारकी १२वीं गाथामें कहा है : सुद्धो सुद्धोदेसो णायबो परमभावदरिसीहि । __ ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ठिदा भावे ।। -जो परमभावको देखनेवाले हैं उनके द्वारा तो शुद्ध तत्त्वका कथन करनेवाला शुद्ध नय जाननेके योग्य है और जो अपरमभावमें स्थित हैं उनके लिये व्यवहारनयका उपदेश कार्यकारी है। यह अवस्था ( अपरमभाव ) जीवनको साधक दशा मानी गई है। साधक दशा क्षीणमोह १२वें गुणस्थान या चउदहवें गणस्थानके उपान्त्य समय तक रहती है। जिन जीवोंको आत्माकी शुद्धताका ज्ञान नहीं हआ है उन्हें तो व्यवहारनय प्रयोजनवान् है, क्योंकि तीर्थ और तीर्थफल इसी पर निर्भर है। जैसा कि कहा भी है :-- शा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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