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________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ९७ जइ जिणम पवज्जह तो मा ववहार-णिच्छए मुयह । एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्च ।। --- अर्थात् यदि जिनेन्द्र भगवानके मतकी प्रवृत्ति चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों ही नयोंको मत त्यागो, क्योंकि यदि व्यवहारनयको त्याग दोगे तो तीर्थकी प्रवृत्तिका लोप हो जावेगा अर्थात् धर्मका उपदेश ही नहीं हो सकेगा । फलतः धर्मका लोप हो जावेगा। और यदि निश्चयनयको त्याग दोगे तो तत्त्वके स्वरूपका ही लोप हो जावेगा, क्योंकि तत्त्वको कहनेवाला तो वही है। अतः व्यवहारनय न तो सर्वथा हेय हो है और न अनुपयोगी ही। अध्यात्मशास्त्रके मर्मज्ञ श्रीमद् रायचन्द्रजी इसी तथ्यको स्पष्टरूपसे व्यक्त करते हुए कहते हैं : लह्य स्वरूप न वृत्ति नु ग्रह्य व्रत अभिमान । ग्रहे नहीं परमार्थने लेवा लौकिक मान ॥२८॥ अथवा निश्चय नय आहे मात्र शब्दनी मांय । लीये सद्व्यवहारने साधन रहित थाय ॥२९॥ निश्चय वाणी सांभली साधन तजवा नोय । निश्चय राखी लक्ष मां साधन करवा सोय ॥१३१॥ नय निश्चय एकांत थी आमां नथी कहेल । एकांते व्यवहार नहीं बन्ने सपि रहेल ॥१३२॥ -आत्मसिद्धिशास्त्र ( रायचन्द्र ) --अर्थात् 'यदि कोई निश्चयदृष्टि अर्थात् नैतिक जीवनमें आन्तरिक प्रवृत्तियोंको ही प्रधानता प्रदान करता है और बाह्याचरण ( व्रत, पूजा, दान आदि) का लोप करता है तो वह साधनासे दूर है । वास्तविकता यह है कि तात्त्विक निश्चयदृष्टिको अर्थात् आत्मा असंग, अबद्ध और नित्य सिद्ध है-इस वाणीको सुनकर साधन अर्थात् बाह्य क्रिया वर्जन नहीं करना चाहिए, अपितु परमार्थपथको आदर्शरूपमें स्वीकार करके अर्थात् उस पर लक्ष्य रख करके बाह्य क्रियाओंका आचरण करते रहना चाहिए, क्योंकि यथार्थ लौकिक जीवनमें एकान्त नैश्चयिकदृष्टि अथवा एकान्त व्यवहारदृष्टि अलग-अलग अपना अस्तित्व नहीं रखतीं, अपितु एकसाथ कार्य करती हैं । वस्तुतः इस जीवनका निर्माण अन्तःपक्ष व बहिःपक्ष-दोनोंसे मिलकर ही बनता है । नैतिकताके क्षेत्रमें आन्तरिक शभ व बाह्य व्यवहार नैतिक जीवनके दो भिन्न पक्ष अवश्य हैं परन्तु अलगअलग तथ्य नहीं। उन्हें अलग-अलग देखा जा सकता है किन्तु अलग-अलग किया नहीं जा सकता । अस्तु । प्रस्तुत कृतिके लेखक जैनदर्शनके मूर्धन्य विद्वान् समाजमान्य विद्वद्वर्य श्री पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य जैनागमके मर्मज्ञ प्रकाण्ड मनीषी हैं। प्रशम-हृदयी व भद्रपरिणामी है। इस वृद्धावस्थामें अस्वस्थ रहते हुए भी, इस समय समाजमें सर्वाधिक चचित विषयपर आपने सन्तुलित लेखनी चलाई है। जैनागमके अधिकारी विद्वान् द्वारा प्रस्तुत 'जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार' का अध्ययन व मनन करके निमित्त-उपादान, निश्चय-व्यवहार आदिको स्याद्वाद व अनेकान्तके आधारपर समझकर मुमुक्ष जीव स्वात्मकल्याणकी ओर प्रवृत्त हों, यही सत्कामना है। 'जैन जयतु शासनम् ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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