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जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार : एक परिशीलन
• स्वस्ति श्री भट्टारक चारुकीर्तिजी, मूडबिद्री
अनन्तधर्मणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयी मूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम् ।।
मेरे सामने जैन समाज के मूर्धन्य मनीषी श्री पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यकी कृति "जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार" है । वर्तमान में समाज में सर्वाधिक चर्चित विषय व्यवहार और निश्चय है । इस चर्चासे समाज में विवेक व स्वाध्यायकी प्रवृत्ति ता जागृत हुई ही है, साथ ही जो व्यवहार और निश्चयसे सर्वथा अपरिचित थे वे भी इस ओर आकर्षित हुए हैं । अनेकान्तवादके महत्त्व व चर्चासे) भी अनेक लोग परिचित हुए हैं । इसका श्रेय सोनगढ़ धामके आध्यात्मिक श्री कानजी स्वामीको है ।
रहस्यसे ( उभय नयोंकी सन्त आत्मार्थी सत्पुरुष
सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि नय क्या है ? तत्त्वार्थवार्तिककारने लक्षणकी परिभाषा इस प्रकार दी है --
-समयसारकलश २
"व्यतिकीर्ण वस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम् ।"
-- अर्थात् परस्पर सम्मिलित वस्तुओंमेंसे किसी एक वस्तुको अलग करने वाले हेतु (चिह्न) को लक्षण
कहते हैं ।
ant परिभाषा इस प्रकार है।
'प्रमाण गृहीतार्थेक देशा ग्राही प्रमातुरभिप्रायः नयः "
- अर्थात् प्रमाणसे ज्ञात पदार्थ के एक देश (अंश) को ग्रहण करनेवाले ज्ञाताके अभिप्रायविशेषको नय कहते हैं । अथवा "ज्ञातुरभिप्रायः नयः " -- ज्ञाताका अभिप्राय नय है । नयोंके द्वारा ही वस्तुके अनेक गुणांशोंका विवेचन संभवनीय है । किसी प्रसंगविशेषका ज्ञान नय द्वारा ही हो सकता है । स्पष्ट है कि जितने प्रकारके वचन हैं उतने ही प्रकारके नय कहे जा सकते हैं ।
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वस्तुका ज्ञान प्रमाण और नयोंसे
।
होता है। तथ्य यह है कि नयके द्वारा वस्तुके एकदेश और प्रमाणके द्वारा वस्तु सर्वांशका ज्ञान होता है वस्तु उत्पाद व्यय - ध्रौव्यात्मक है । ध्रौव्यके अभाव में उत्पाद-व्ययका अभाव है और उत्पाद-व्ययके अभाव में ध्रौव्यका अभाव है । वस्तुके द्रव्यत्वका बोध घ्रौव्यसे होता है व पर्यायत्वका बोध उत्पाद व्ययसे होता है । वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है । वस्तुके पूर्ण ज्ञानके लिए यह आवश्यक है कि उसका द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टिसे अवगाहन किया जाय । नयका कार्य एक दृष्टिसे उसके एक अंश ( पक्ष ) का ज्ञान प्राप्त करना है, जबकि उभयदृष्टिकोण से उसके दोनों (पक्षों) का ज्ञान होता है । निरपेक्ष नयोंसे प्राप्त ज्ञान मिथ्या है और सम्यक्ज्ञान वही है जो सापेक्ष नयोंसे प्राप्त किया जाता है, क्योंकि 'निरपेक्षा या मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत्' ऐसा सिद्धान्त है । वस्तुतः वस्तुका यथार्थ बोध प्राप्त करनेके लिए उभय नका आश्रय परमावश्यक है । यद्यपि आत्मानुभव 'नयातीत' व 'पक्षातीत' है । उसे इन विकल्पोंकी कोई आवश्यकता नहीं है - वह इनसे अतिक्रान्त है तथापि अतिक्रमणकी योग्यता प्राप्त करनेके लिए वस्तुका परिचय भी आवश्यक है । २-१३
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