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पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी : एक समीक्षा डॉ० सुदर्शन लाल जैन, रीडर-संस्कृत विभाग, का० हि० वि० वि० वाराणसी
सिद्धान्ताचार्य पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य द्वारा रचित प्रस्तुत लघुकाय ग्रन्थ विषयकी दृष्टिसे बहुत गम्भीर है। आपकी अन्य रचनायें भी गम्भीर विषयोंका ही प्रतिपादन करती हैं। द्रव्यस्वरूप और पर्यायोंकी द्विविधता
... जैनदर्शनके अनुसार द्रव्यका स्वरूप है 'सत्' और 'सत्' उसे कहते है जो उत्पत्ति और विनाशरूप पर्यायोंके होते रहनेपर भी ध्रुव ( नित्य ) बना रहे ।' इसी अर्थका पोषक द्रव्यका दूसरा लक्षण भी किया गया है। वह है-'जिसमें गुण और पर्याय हों वह द्रव्य है ।'२ इन दोनों लक्षणोंमें भेद नहीं है। इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
प्रत्येक द्रव्यमें स्वाभाविक रूपसे स्वतःसिद्ध अनन्त गुण रहते हैं तथा प्रत्येक द्रव्यमें द्रव्यपर्याय और प्रत्येक गुणमें गुणपर्याय रहती हैं । इस तरह पर्याय दो तरहकी होती हैं-(१) द्रव्यपर्याय और (२) गुणपर्यायें । चूँकि गुण द्रव्यके स्वतःसिद्ध स्वभाव है। अतः गुण भी 'सत्' कहलाते हैं। प्रत्येक द्रव्य और प्रत्येक गुणमें हमेशा उत्पाद-व्ययकी प्रक्रिया चालू रहती है। द्रव्य और गणकी स्व-स्व उत्तरपर्यायकी उत्पत्तिका नाम है उत्पाद्' और उनकी स्व-स्व पूर्वपर्यायके विनाशका नाम है 'व्यय' । पर्यायोंके बदलने पर भी द्रव्य अपनी द्रव्यताको और गुण अपनो गुणरूपताको कभी नहीं छोड़ते हैं । अतः वे नित्य हैं, ध्रुव हैं। स्पष्टीकरण
छह द्रव्योंमें धर्म, अधर्म, काल और आकाश इन चार शुद्ध द्रव्योंकी पर्याय स्वप्रत्यय, जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य शुद्ध भी होते हैं और अशुद्ध भी होते हैं । शुद्ध जीव (मुक्त) और शुद्ध पुद्गल (परमाणु) में स्वप्रत्यय तथा शेष जीव-पुद्गलोंमें स्वपरप्रत्यय पर्याय होती हैं। तथा षटगुणहानि-वृद्धिरूप गुणपर्यायोंको छोड़कर शेष सभी गुणपर्यायें भी स्व-परप्रत्यय होती हैं । षट्गुणहानिवृद्धिरूप गुणपर्याय स्वप्रत्यय ही होती हैं। जो पर्याय निमित्तकारणभूत बाह्यसामग्रीकी सहायताके बिना ही मात्र उपादानकारणजन्य हो वह स्वप्रत्ययपर्याय है। जो पर्याय निमित्तकारणभूत बाह्यसामग्रीकी सहायतापूर्वक उपादानकारणजन्य हो वह स्व-परप्रत्यय पर्याय है। स्वप्रत्यय पर्यायें क्रमबद्ध ही होती हैं और स्व-परप्रत्यय पर्याय क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध दोनों रूप होती हैं यही सिद्ध करना इस पुस्तकके लिखनेका उद्देश्य है । क्रमबद्ध-अक्रमबद्धका अर्थ तथा विवाद-स्थल
क्रमबद्धताका अर्थ है पर्यायोंका नियतक्रमसे उत्पन्न होना और अक्रमबद्धताका अर्थ है पर्यायोंका अनियतक्रमसे उत्पन्न होना । यहाँ इतना विशेष है कि एकजातीय दो आदि अनेक पर्यायें कदापि युगपत् एक ही समयमें उत्पन्न नहीं होतीं, अपितू एक जातीय पर्याय एकके पश्चात् एकरूप क्रमसे ही उत्पन्न होती है। इसमें किसीको भी विवाद नहीं है । विवादका स्थल है स्व-पर प्रत्यय पर्यायोंको बाह्यनिमित्तकारण सापेक्षताके आधारपर अक्रमबद्ध माना जाए या नहीं। स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिके सन्दर्भमें मख्य दो मत हैं(१) पुरातन सिद्धान्तवादी-ज्ञप्ति की अपेक्षा स्व-परप्रत्यय पर्याय क्रमबद्ध होनेपर भी उत्पत्तिको अपेक्षा १. सद् द्रव्यलक्षणम् । उत्पाद्व्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । -तत्त्वार्थसूत्र ५-२९-३० । २. गुणपर्ययवद्र्व्य म् । तत्त्वार्थसूत्र ५-३८ ।
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