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२ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ८९ होनेवाली शुभ प्रवत्तिरूप व्यवहार धर्मके रूपमें किया जाता है। पुरुषार्थ करनेको यह प्रक्रिया एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय संज्ञी तकके सभी जीवोंमें अनादिकालसे यथासम्भव रूपमें होती चली आ रही है ।
___पुस्तकमें आगे गुणस्थानोंकी विस्तृत चर्चा की है तथा कहा है कि तिर्यञ्चगतिकी अपेक्षा उसमें आदिके पाँच गुणस्थान सम्भव हैं तथा मनुष्यगतिकी अपेक्षा उसमें प्रथम गुणस्थानसे लेकर चतुर्दश गुणस्थान तक सभी गुणस्थान सम्भव हैं। इस प्रकार पंडितजीने भाग्य और पुरुषार्थके वर्णनमें गुणस्थानोंकी जो चर्चा की है वह वास्तवमें पंडितजीके गहन अध्ययनका सुपरिणाम है। पंडितजीकी दृष्टि बहुत पैनी है, इसलिए विषयका विवेचन बहुत गम्भीर एवं गहन है।
लेकिन पुस्तककी भाषा सरल होते हुए भी पंडितजीने अपने विवेचनमें लम्बे-लम्बे वाक्योंका प्रयोग किया है जिससे पाठक उनमें उलझ जाता है और लेखक क्या बात कह रहा है उसे ससझ पाना उसके लिए कठिन हो जाता है। पुस्तकमें पहले विषयको तीन विवेचनोंके माध्यमसे रखा गया है और फिर उन तीन विवेचनोंके तीन स्पष्टीकरण दिये गये हैं। इस प्रकार छह प्रकरण और अन्तमें एक परिशिष्ट जोड़कर पुस्तकके विषयको तत्त्वचर्चाके रूप में प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक पूर्णतः पठनीय है तथा वह पाठकको नई दिशा देने वाली है। व प्रस्तुत पुस्तक वीरसेवामंदिर ट्रस्ट-प्रकाशनकी ओरसे सन् १९८५में प्रकाशित हुई थी। इस ट्रस्टके संस्थापक आचार्य जुगलकिशोरजी मुख्तार थे तथा ट्रस्टके सम्पादक एवं नियामक जैन जगतके विद्वान् डॉ० दरबारीलालजी कोठिया हैं । इस ट्रस्टकी ओरसे अब तक प्रस्तुत पुस्तक सहित ३८ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रस्तुत पुस्तक ५४ पृष्ठोंमें पूर्ण होती है तथा उसकी कीमत चार रुपये रखी गयी है। पुस्तकप्राप्तिका स्थान-वीरसेवामन्दिरट्रस्ट प्रकाशन, बी-३२/१३ बी०, नरिया, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-५ है।
Niulatein
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