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________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ९१ क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध दोनों होती हैं। (२) सोनगढ़ सिद्धान्तवादी-उत्पत्ति और ज्ञप्ति दोनों अपेक्षाओंसे स्व-परप्रत्यय पर्यायें क्रमबद्ध ही होती हैं, अक्रमबद्ध नहीं । सोनगढ़ सिद्धान्तवादियोंका पूर्वपक्ष सोनगढ़ सिद्धान्तवादियोंके पास अपनी मान्यताको बल देनेवाले मुख्यरूपसे दो तर्क हैं (१) आत्मख्याति टीकाका क्रमनियमित शब्द-समय सारके सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारकी ३०८-११ तककी गाथाओंकी आत्मख्याति टीकामें आया है-"जीवो हि तावत् क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव नाजीव;, एवमजीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामरुत्पद्यमानोऽजीव एव न जीवः ।" यहाँ आए ‘क्रमनियमित'. शब्दकी व्याख्या करते हुए डॉ० हुकुमचन्द्र भारिल्लने अपनी पुस्तक 'क्रमबद्ध पर्याय' पृष्ठ १२३ पर लिखा है-क्रम = क्रमशः तथा नियमित निश्चित । अर्थात जिस समय जो पर्याय आनेवाली है वही आएगी, उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता है। इससे पुरुषार्थका निषेध और निश्चित भाग्यवादकी पुष्टि होती है। इसका यह भी तात्पर्य है कि सभी स्व-परप्रत्यय पर्याय भी पूर्व निश्चितक्रमानुसार होनेसे क्रमबद्ध हैं। (२) केवलज्ञानका विषय होना-सर्वज्ञके केवलज्ञानमें प्रतिसमय युगपत् सम्पूर्ण द्रव्योंको कालिक सभी स्व-परप्रत्यय पर्याय प्रतिभासित होती हैं। अत: स्व-परप्रत्यय पर्यायोंको भी क्रमबद्ध हो मानना चाहिए अन्यथा अक्रमबद्ध ( अनियतक्रम) होनेपर उन स्व-परप्रत्यय पर्यायोंका केवलज्ञानमें प्रतिसमय युगपत क्रमबद्ध प्रतिभासित होना असंभव है। ये दो ही मुख्य तर्क हैं जिनके आधारपर स्व-परप्रत्यय पर्यायोंको क्रमबद्ध सिद्ध किया जाता है । पुरातन सिद्धान्तवादियोंका उत्तरपक्ष (१) 'क्रमनियमित'का सही अर्थ-आत्मख्याति टीकाके 'क्रमनियमित' शब्दका अर्थ ‘क्रमवर्ती समयके साथ नियमित ( बद्ध )' यह सोनगढी अर्थ ठीक नहीं है अपितु ‘एक जातीय स्व-पर प्रत्यय पर्याय एकके पश्चात् एकरूप क्रममें नियमित ( बद्ध )' यह अर्थ उचित है। (२) उत्पत्ति और ज्ञप्तिका भेद-यह निर्विवाद सत्य है कि सर्वज्ञके केवलज्ञानमें कालिक स्व-परप्रत्यय पर्यायें युगपत् एक ही समयमें क्रमबद्ध ही प्रतिभासित होती हैं परन्तु इस आधारपर उन पर्यायोंकी उत्पत्तिको भी क्रमबद्ध मानना न्यायसंगत नहीं है क्योंकि उन त्रैकालिक पर्यायोंका केवलज्ञानमें युगपत् एक ही समयमें क्रमबद्ध प्रतिभासित होना अन्य बात है तथा उनकी उपादान, प्रेरक तथा उदासीन निमित्तकारणोंकी यथा प्राप्तिके बलसे यथासंभव क्रमबद्ध या अक्रमबद्ध रूपमें उत्पन्न होना अन्य बात है। अतः उत्पत्तिकी अपेक्षा विचार करनेपर स्व-परप्रत्यय पर्याय प्रेरक और उदासीन निमित्तकारण-सापेक्ष होनेसे क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध दोनों सिद्ध होती है। ज्ञप्तिकी अपेक्षा विचार करनेपर हम कह सकते है कि उत्पन्न हुई, उत्पन्न हो रही और आगे उत्पन्न होनेवाली उन पर्यायोंका प्रतिभासन केवलज्ञानमें युगपत् एक ही समयमें क्रमबद्ध रूपमें होता है। पर्यायोंकी उत्पत्तिका निश्चय श्रुतज्ञानके आधारपर संभव है, केवलज्ञानके विषय-आधार पर नहीं। दोनों सिद्धान्तोंमें भेदका हेतु परातन सिद्धान्तवादी स्व-परप्रत्यय पर्यायकी उत्पत्तिमें देश और कालको महत्त्व न देकर उपादान १. देखें, मूलग्नन्थ, पृ० १२,१७,३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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