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________________ माना गया है। (५) इस व्याकरण में वैदिक संस्कृत के नियमों का अभाव शर्ववर्मा के ही शब्दों में "क्षिप्रप्रबोधार्थ" है न कि वेदों से बैराग्य के कारण है । (६) इस व्याकरण का प्रचलन-क्षेत्र बंगाल रहा है (और एक सीमा तक अभी भी है) जो कभी भी जैन विद्या का केन्द्र नहीं रहा। (16) श्रमण परम्परा में प्रारंभ में यह व्याकरण केवल बौद्धों में ही लोकप्रिय रहा है जिसके परिणामस्वरूप इसका धातुपाठ आज भी तिब्बती भाषा में प्राप्त होता है। कातन्त्रव्याकरण के लेखक शर्ववर्मा स्वयं चाहे जैन न हों, पर इस व्याकरण की परिपूर्णता में जैन आचार्यों का भी पूरा योगदान रहा है। शर्ववर्मा इस ब्णकरण के आख्यातान्त भाग तक के ही रचयिता माने जाते हैं। जबकि उसके कृदन्त भाग के कर्ता कात्यायन माने जाते हैं । दुर्ग सिंह की कातन्त्रवृत्ति के प्रारम्भ में ही लिखा है "वृक्षादिवदमी रूढ़ा न कृतिना कृता कृतः । कात्यायनेन ते सृष्टा विबुद्धप्रतिबुद्धये ।। कात्यायन भी अजैन ही थे। परन्तु इस व्याकरण की महत्ता के संवर्धन में जैन विद्वान् विजयानन्द के कातन्त्रोत्तर-व्याकरण तथा वर्धमान के कातन्त्रविस्तर का प्रभूत योगदान रहा है । जैन पुस्तक प्रशस्तिसंग्रह (पृ० १०८) में विजयानन्द का दूसरा नाम विद्यानन्द कहा गया है-"इति विजयानन्द विरचिते कातन्त्रोत्तरे विद्यानन्दापरनाम्नि-" दूसरी ओर कातन्त्रविस्तर के लेखक वर्धमान का सम्बन्ध गुजरात के राजा कर्णदेव से जोड़ा जाता है । इन दो महत्वपूर्ण जैन विस्तरग्रन्थों के अतिरिक्त कातन्त्रव्याकरण पर कुछ अन्य जैन आचार्यों ने भी ग्रन्थ लिखे । इन ग्रंथों को हम तीन वर्गों में बाँटकर देख सकते हैं। कुछ ग्रन्थ शुद्ध रूप से कातन्त्र पर विस्तरग्रन्थ हैं । ऊपर लिखे दो ग्रन्थों के अतिरिक्त धर्मघोषसरि द्वारा लिखित चौबीस सहस्र श्लोक प्रमाणवाला कातन्त्र भूषण भी इसी कोटि का ग्रन्थ है जो कातन्त्र पर आधारित है और उसी को रूपान्तर में प्रस्तुत करता है। दूसरे प्रकार के ग्रन्थ वे ग्रन्थ हैं जो शर्ववर्मा के व्याकरण पर वृत्ति अथवा व्याख्या के रूप में हैं। इनमें हर्षचन्द्र के लेखकत्व से ज्ञात कातन्त्र दीपकवृत्ति तथा सोमकीति द्वारा लिखित कातन्त्रवृतिपञ्जिका के नाम उल्लेखनीय हैं । कातन्त्र व्याकरण में पाणिनि के समान उत्सर्ग-अपवाद विधि का शिथिल अनुकरण करने पर भी सूत्रों का क्रम विषयानुसार रखा गया है। अतः कुछ जैन विद्वानों को कातन्त्र पर प्रक्रियाग्रन्थ लिखने का आकर्षण स्वाभाविक ही हुआ। ऐसे ग्रन्थों में दिगम्बर मुनि भावसेन की कातन्त्ररूपमाला तथा उसी पर किसी अन्य जैन मुनि की लघुवृत्ति के नाम उल्लेखनीय हैं। कुछ जैन विद्वानों ने कातन्त्र पर लिखी दुर्गसिंह की टीका का पृथक् से ग्रन्थ रूप में अध्ययन किया है। सारस्वत व्याकरण-यह एक आश्चर्य का विषय है कि कान्त्रिव्याकरण न तो किसी जैन आचार्य द्वारा लिखा गया था और न ही जैन विद्या के किसी ज्ञात केन्द्र में प्रचलित रहा है। इस पर भी इस व्याकरण पर इतनी अधिक संख्या में जैन आचार्यों द्वारा विविध प्रकार के ग्रन्थों का लिखा जाना आश्चर्यजक है। इस दृष्टि से अनुभूतिस्वरूपाचार्य द्वारा १५वीं सदी में लिखे गए सारस्वत व्याकरण पर और भी अधिक जैन विद्वानों द्वारा ग्रन्थों का लिखा जाना इसलिए कम आश्चर्य का विषय है क्योंकि यह व्याकरण जैन विद्या के प्रमुख केन्द्र गुजरात में प्रचलित रहा है और जैनों में इस व्याकरण का अध्ययन-अध्यापन प्रायः होता रहा है। पं० अशाद ने इस व्याकरण पर तेईस जैनग्रन्थ गिनवाए है । ये सभी ग्रन्थ अनेक प्रकार के हैं। इनमें से कुछ ग्रन्थ सारस्वत ब्याया टीका के रूप में हैं जिनमें मालज्ञातीय मन्त्री का सारस्वत मण्डन, यशोनन्दीरचित यशोनन्दिनी टीका मेघरत्न ३ , और चन्द्रकीतिमरि की सुबोधिनी प्रसिद्ध हैं। कुछ ग्रन्थ विशुद्ध रूप से प्रक्रिया शैली में लिखे गए हैं जिनमें सारस्वत व्याकरण को आधार बनाया गया है। इनमें पद्मसुंदरमणि की सारस्वतरूपमाला तथा नयसुन्दरमुनि की रूपरत्नमाला उल्लेखनीय है। कुछ ग्रन्थ सारस्वत व्याकरण के कुछ अंशों पर लिखे गए। उदाहरणतया, सारस्वत व्याकरण के सन्धिभाग पर सोमशीलमुनि की पंचसन्धि टीका परिभाषाओं पर दयारत्नमुनि की न्यायरत्नावली, हर्षकीतिसूरि की धातुतरंगिणी तथा उपाध्याय राजसी का पंचसंधि बा विबोध के नाम लिए जा सकते हैं। इन सबके अतिरिक्त १८वीं सदी में मुनि आनन्द विधान ने सारस्वत व्याकरण पर भाषाटीका की भी रचना की धी। ये सभी ग्रन्थ प्रायः अप्रकाशित अवस्था में विभिन्न पुस्तकालयों में हस्तलिखित रूप में हैं और १५वीं से १८वीं सदी के मध्य लिखे गए। उपसंहार-निबन्ध की कुछ सहज सीमाएँ होती हैं जिसमें विश्लेषण एक परिधि से आगे हो पाना सम्भव नहीं हो पाता%3B विश्लेषणयोग्य ग्रन्थों की अधिकता हो जाने पर उनका कोटिशः विवरण मात्र ही हो पाता है। इस निबन्ध में भी संस्कृत व्याकरण को १. कथासरित्सागर, लम्बक, १, तरग ६, ७. २. जैन साहित्य का बहद इतिहास, भाग ५, १०५५ से । जन प्राच्य विद्याएं १२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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