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________________ जैन आचार्यों द्वारा जो प्रभुत योमदान हुआ है उसकी कोटियां बनाकर विवरण शैली में ही विश्लेषण हो पाया है । परन्तु इसके आधार पर हम कुछ निश्चित निष्कर्षों तक पहुंचने की स्थिति में आ जाते हैं। उपसंहार रूप में यहाँ दो निष्कर्षों तक निरपेक्ष भाव से पहुंचने का प्रयास किया जा रहा है (१) इसमें सन्देह नहीं है कि विद्वान् जैन आचार्यों ने संस्कृत व्याकरण की समृद्धि में प्रभूत योगदान किया है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में से तीन जैन व्याकरण इस उच्च कोटि के सिद्ध होते हैं कि उनके प्रवर्तकों को संप्रदाय प्रवर्तक कहा जा सकता है । जैनेन्द्र, शाकटायन और हैम-ये तीन व्याकरण केवल व्याकरण मात्र ही नहीं रह गए अपितु व्याकरण-सम्प्रदाय के स्तर को प्राप्त कर गए। इनमें से भी आचार्य हेमचन्द्र का व्याकरण, अपने पांचों व्याकरण-पाठों की उपलब्धि के कारण, मौलिकता और व्याकरणिक गुणवत्ता के सर्वश्रेष्ठ जैन व्याकरण सम्प्रदाय माना जा सकता है। परन्तु इस सम्पूर्ण श्रेष्ठता के रहते भी यह विचित्र वास्तविकता है कि कोई भी एक जैन व्याकरण सम्प्रदाय, यहां तक कि सिद्ध हैम भी, जैन समुदाय में सर्वस्वीकृत न हो सका। इसके विपरीत ये सभी व्याकरण, जनेतर सारस्वत व्याकरण के साथ, जैन समुदाय में स्थान-स्थान पर अध्ययन-अध्यापन के लिए प्रचलित रहे । यह एक निष्कर्ष जैन समुदाय के उदार, असंकीर्ण बौद्धिक चेत्रना का परिचायक है। अपने समुदाय के विद्वानों द्वारा लिखित व्याकरणों की परिधि में उन्होंने स्वयं को परिसीमित नहीं कर लिया। (२) इस सामान्य दृष्टिकोण परक निष्कर्ष के अतिरिक्त जैन व्याकरण के सम्बन्ध में एक विशिष्ट तकनीकपरक निष्कर्ष भी महत्वपूर्ण है। जैन व्याकरण की एक लम्बी परम्परा से हमारा परिचय हो चुका है। उस लम्बी परम्परा में तकनीक सम्बन्धी दो बातें उभर कर सामने आती हैं : (क) पाणिनि की सम्पूर्ण व्याकरणिक प्रक्रिया का आधार प्रकृति-प्रत्यय प्रणाली है । सम्पूर्ण जैन व्याकरण में भी इस प्रणाली को यथावत् स्वीकार किया गया है। एक पुरानी परम्परा के उत्तराधिकारी के रूप में पाणिनि ने जिस विधि को पूर्ण परिपक्वता और वैज्ञानिकता प्रदान की, उस विधि का विकास हूंढ़ पाना भाषाई दृष्टि से इसलिए सम्भव नहीं था क्योंकि जहां एक ओर यह विधि विश्लेषण की दृष्टि से संस्कृत व्याकरण का सहज अंग बन गई थी, वहाँ दूसरी ओर एक पुरानी भाषा के लिए, जो बोलचाल की भाषा नहीं रह गई थी, विश्लेषण की नूतन विधि प्रतिपादित करना भाषाई दृष्टि से न तो सम्भव था और न ही आवश्यक । (ख) जिस प्रकार पाणिनि ने अपने व्याकरण मैं कुछ सज्ञाएं पूर्वाचार्यों से ग्रहण की थीं तथा कुछ नई संज्ञाओं का निर्माण किया था उसी प्रकार जैन व्याकरण-शास्त्र ने अनेक संज्ञाएं पाणिनि से यथावत् ग्रहण की और अनेक संज्ञाओं का नब-निर्माण किया। इन दोनों पक्षों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि जैन आचार्यों ने संस्कृत व्याकरण का विश्लेषण पूरी परम्परा के अन्तर्गत रह कर करते हुए विशिष्ट वैज्ञानिक तकनीक का परिचय दिया । व्रतचर्या क्रिया में अध्ययन सम्बन्धी निर्देश सम्राट भरत ने द्विजों के लिए गर्भाधान से अग्रनिर्वृति अर्थात गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त तक महापुराण ३८/५०-३०६) में तिरेपन क्रियाओं का उल्लेख किया है। आवश्यक नियमों के पालन के उपरान्त महापुराण कार ने व्रतचर्या नामक क्रिया के अन्तर्गत ब्रह्मचारी बालक के अध्ययन के निमित्त इस प्रकार का प्रावधान किया है : सूत्रमौपासिकं चास्य स्यादध्येयं गुरोमुखात । विनयेन ततोऽन्यच्च शास्त्र मध्यात्मगोचरम् ।। शब्दविद्याऽर्थशास्त्रादि चाध्येयं नास्य दुष्यति । सुसंस्कारप्रबोधाय वयात्वख्यातयेऽपि च ॥ ज्योतिर्ज्ञानमयच्छन्दोज्ञानं ज्ञानं च शाकुनम् । संख्याज्ञानमितीदं च तेनाध्येयं विशेषतः ।। विद्यार्थी को सर्वप्रथम गुरु के मुख से श्रावकाचार पढ़ना चाहिए और फिर विनयपूर्वक अध्यात्मशास्त्र पढ़ना चाहिए। उत्तम संस्कारों को जागृत करने एवं विद्वत्ता को प्राप्त करने के लिए व्याकरण आदि शब्दशास्त्र और न्याय आदि अर्थशास्त्र का भी अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि आचार-विषयक ज्ञान होने पर इनके अध्ययन करने में कोई दोष नहीं है। इसके बाद, ज्योतिषशास्त्र, छन्दशास्त्र, शकुनशास्त्र और गणितशास्त्र आदि का भी उसे विशेष रूप से अध्ययन करना चाहिए । -सम्पादक आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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