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________________ (४) वर्धमान ने पाणिनि के कुछ लम्बे सूत्रों को गणरूप में परिवर्तित कर दिया है। गणरत्नमहोदधि पर स्वयं वर्धमान की एक स्वोपज्ञावृत्ति है। इसके अतिरिक्त गंगाधर और गोवर्धन ने भी इस पर टीकाएँ लिखी थीं । वर्धमान सिद्धराज जयसिंह के आश्रय में रहे। ये वही सिद्धराज हैं जो हेमचन्द्र के आश्रयदाता थे। इससे वर्धमान आचार्य हेमचन्द्र के समकालीन सिद्ध होते हैं । हेमचन्द्र का समय विक्रम की बारहवीं सदी का उत्तरार्ध है । अतः यही समय वर्धमान का भी माना जा सकता है । अपने आश्रयदाता की स्तुति में वर्धमान ने "सिद्धराजवर्ण न” नामक ग्रन्थ लिखा था जिसके पद्यों को उसने अपने गणरत्नमहोदधि उदाहरणस्वरूप भी 'प्रस्तुत किया है। में जैनेन्द्र परवर्ती जैन व्याकरण की परम्परा में हेमचन्द्र के बाद वर्धमान को छोड़कर कोई उल्लेखनीय नाम सामने नहीं आता है। इस प्रसंग में कुछ विद्वान् आचार्य मलयगिरि सूरि विरचित मुष्टिका व्याकरण, सहजकीर्ति गणि के शब्दार्णव व्याकरण, जयसिंहसूरि का "नूतनव्याकरण" मुनि प्रेमलाभ का "प्रेमलाभव्याकरण", दानविजय का का "शब्दभूषण व्याकरण" आदि व्याकरणग्रन्थों का नाम लेते हैं । ये सभी व्याकरण किसी भी रूप में अपने अस्तित्व की छाप नहीं छोड़ पाए और किसी न किसी रूप में हैमव्याकरण से प्रभावित रहे । इस प्रकार हैमतन्त्र के साथ ही जैन परम्परा में मौलिक व्याकरण ग्रन्थों की श्रृंखला में विराम सा आ जाता है । (ख) जैनेतर व्याकरण एवं जैन आचार्य जैसा कि इस निबन्ध की भूमिका में ही कहा जा चुका है जैन वैयाकरणों ने जैन इतर वैयाकरण सम्प्रदायों की श्रीवृद्धि में भी अपना बहुमूल्य योगदान किया है। यहाँ उसका संक्षेप में अध्ययन किया जा रहा है । पाणिनीय व्याकरण - पाणिनीय व्याकरण पर जैन आचार्यों का भाष्य वृत्ति सम्बन्धी कार्य बहुत कम उपलब्ध होता है, और ऐसा प्रतीत होता है कि पाणिनीय व्याकरण पर जैन आचार्यों ने बहुत कम लिखा है । विभिन्न उल्लेखों से ऐसा प्रमाणित होता है कि जैनेन्द्र व्याकरण के रचयिता पूज्यपाद देवनन्दी ने पाणिनि व्याकरण पर "शब्दावतार न्यास" की टीका लिखी थी। यह टीका इस समय उपलब्ध नहीं है । शिमोगा जिले की "नगर" तहसील के एक संस्कृत शिलालेख ( ४३वाँ लेख ) में सग्धरा छन्द में बने एक श्लोक में पूज्यपाद के ग्रन्थों का उल्लेख है जिसके पहले पाद में आचार्य के "पाणिनीपन्यास " का स्पष्ट उल्लेख है - न्यास द्रसंज्ञ" सकलबुधनतं पाणिनीयस्य ( भूय: ) ।" इसी प्रकार वृत्तविलास ने धर्मपरीक्षा नामक कन्नड़ काव्य में इस प्रकार के एक ग्रन्थ का संकेत दिया है । १७वीं सदी में विश्वेश्वर सूरि नामक एक जैन विद्वान् ने भी अष्टाध्यायी पर एक टीका लिखी थी जो आज अंशत: ( केवल प्रारंभ के तीन अध्याओं तक ) ही उपलब्ध है। इस व्याख्या पर भट्टोजि दीक्षित का नाम स्थान-स्थान पर उद्धृत किया गया है जिससे होता है कि व्याख्याकार भट्टोज से प्रभावित है। इन व्याख्याओं के अतिरिक्त पाणिनीय तन्त्र पर अन्य किसी महत्वपूर्ण जैन प्रयास के प्रमाण प्राप्त नहीं होते । - कन्त्र व्याकरण — जैन आचार्यों द्वारा जैनेतर संस्कृत व्याकरण सम्प्रदायों में से कातन्त्र और सारस्वत व्याकरणों अधिक योग दिया गया है। इसका कारण सम्भवतः यह माना जा सकता है कि वैदिक भाषाओं के नियमों की भी प्रतिपादिका होने के कारण यहां पाणिनीय अष्टाध्यायी के प्रति जैन आचार्यों में उत्साह की कमी थी वहां कातन्त्र और सारस्वत इन दो महत्वपूर्ण पाणिनि-परवर्ती व्याकरण सम्प्रदायों में वैदिक भाषा के नियमों को कोई विशेष स्थान प्राप्त न था । इसलिए जैन आचार्यों ने इन दो व्याकरणों पर विशेष टीका सम्पति प्रदान की। जहाँ तक कातन्त्रव्याकरण का सम्बन्ध है, कुछ संशोधक इसे भी एक जैन व्याकरण ही मानना चाहते हैं, यद्यपि परम्परा एवं प्रमाणों से यह बात पुष्ट नहीं होती । पं० अम्बालाल शाह के शब्दों में ' -- "सोमदेव के कथासरित्सागर के अनुसार ( कातन्त्रकार ) अजैन सिद्ध होते हैं, परन्तु भावसेन त्रैविद्य रत्नमाला में इनको जैन बताते हैं ।" वस्तुतः सभी प्रमाण कातन्त्रव्याकरण को जैनेतर ही सिद्ध करते हैं । (१) कातन्त्रकार शर्ववर्मा ने स्वयं को किसी भी रूप में जैन नहीं कहा है। ( २ ) सम्पूर्ण संस्कृत वाङ् मय में शर्ववर्मा जैन नहीं कहे गए हैं । (३) इसके विपरीत अग्निपुराण और स्कन्दपुराण में इस व्याकरण को कार्तिकेय की कृपा से प्राप्त माना जाता है जिसके आधार पर इसे कालाप और कौमार व्याकरण भी कहा जाता है। ( ४ ) व्याकरण की परम्परा में इसे काशकृत्स्न व्याकरण ( का = काशकृत्स्न) का संक्षेप १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५, पृ० ५०. १२८ Jain Education International आवारान भी देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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