________________
हेमचन्द्र के धातुपाठ का नाम हेमधातुपारायण है । समस्त धातुपाठ नौ गणों में विभक्त है । पाणिनि के दस गणों में से जुहोत्यादिगण को अदादिगण में समाविष्ट कर लिया गया है। समस्त धातुओं की संख्या १९८० है । हेमचन्द्र ने दो प्रकार की धातु स्वीकार की हैं-गुड और प्रत्ययान्त जहां शुद्ध धातुओं में भू गम्, पढ् आदि का समावेश होता है वहां कारि, चोरि, भावि, गु जुगुप्स्, कण्डूय सदृश धातु प्रत्ययान्त हैं। हेमचन्द्र ने फक्क् (निर्माण), खोड ( घात), झिम् (खाना), पूली (तृणोच्वय करना) सदृश धातु भी कल्पित की जो जनसामान्य में प्रयुक्त शब्दों के संस्कृतीकरण का प्रयास कही जा सकती है। धातुपाठ पर हेमचन्द्र की स्वोपज्ञा वृत्ति के अतिरिक्त गुणरत्नसूरि ने भी एक वृत्ति की रचना की थी।
हेमचन्द्र का लिखा गणपाठ स्वयं आचार्य द्वारा लिखे शब्दानुशासन पर स्वोपज्ञा बृहतीवृत्ति में संकलित उपलब्ध होता है । जो गण वहां नहीं आ पाए हैं उनका संकलन विजयनीति सूरि ने अपनी सिद्धहेम - बृहत्प्रक्रिया" में कर दिया है। आचार्य के गणपाठ पर आक्षेप करते हुए बेल्वाल्कर ने लिखा हैं कि उसमें पाल्यकीर्ति के शब्दानुशासन और उसकी अमोघावृति का अन्धानुकरण की सीमा तक आश्रय लिया गया है। जबकि पं० मीमांसक का कथन है कि हम गणपाठ में पाल्यकीर्ति के अनुकरण के बावजूद मौलिकता है । हेमचन्द्र का उणादिपाठ सबसे अधिक विस्तृत पाठ माना जाता है। इस पाठ में १००६ सूत्र हैं। इस पर आचार्य की स्वोपज्ञा
वृत्ति भी है।
हेमचन्द्र का लिगानुशासन पाठ १३८ श्लोकों में है जो बहुत अधिक विस्तृत माना जाता है। इसमें शब्दों के लिगनिर्देश कई आधार पर निश्चित किए गए हैं जबकि पाणिनि के पाठ में केवल प्रत्ययों को ही लिंगनिर्धारण का आधार माना गया है। इस नवीनता का कारण भी स्पष्ट है। हेमचन्द्र अपने समय के महान् कोशकार थे और उनका विभिन्न शब्दों और प्रयोगों का ज्ञान अद्भुत थी। उसी का प्रभाव उनके लिंगानुशासनपाठ पर भी है।
हेमचन्द्र ने अपने शब्दानुशासन के अनुकूल एक परिभाषापाठ भी लिखा था जिसमें ५० परिभाषाएँ संकलित हैं। इनके अतिरिक्त हैम सम्प्रदाय के एक अन्य आचार्य हेमहंसगणि ने ८४ अन्य परिभाषाओं का एक पूरक परिभाषासंग्रह लिखा है । हैमव्याकरण में परिभाषाएँ न्यायसूत्रों के नाम से जानी जाती हैं ।
आचार्य हेमचन्द्र के पंचांग व्याकरण पर विशाल टीका उपटीका सम्पत्ति प्राप्त होती है। इस समस्त सामग्री का विश्लेषण निबन्ध की स्वाभाविक सीमाओं को देखते हुए सम्भव नहीं है ।
वर्धमान - १२वीं सदी के विख्यात जैन आचार्य वर्धमान अपने एकमात्र व्याकरणग्रन्थ गणरत्नमहोदधि के कारण संस्कृत व्याकरण frera में अत्यधिक प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। वर्धमान का सम्बन्ध श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के साथ माना जाता है । पर उनका ग्रन्थ किसी विशेष जैन व्याकरण सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखता हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। कुछ संशोधकों ने ऐसा सिद्ध करने का प्रयास किया है कि पाल्यकीर्ति के शाकटायन-व्याकरण में जो धातु आते हैं उनका संकलन वर्धमान ने किया है। ऐसा मान लेने पर गणरत्नमहोदधि की सर्वस्वीकृत आकरता संदिग्ध हो जाती है। वस्तुतः वर्धमान के ग्रन्थ में शाकटायन और हैम सदृश जैन सम्प्रदायों के गणपाठों का, चन्द्रणोमि सदृश बौद्ध व्याकरण सम्प्रदाय के गणपाठ का तथा पाणिनि और कात्यायन के स्वरवैदिक प्रकरण से व्यतिरिक्त गणपाठ का महान् संकलन कर दिया गया है । इस पर वर्धमान की स्वोपज्ञा टीका भी है। इन प्रमुख वैयाकरणों के अतिरिक्त अन्य जिन वैयाकरणों का उल्लेख वर्धमान ने किया है उनके नाम है- अभयनंदी, अरुणवत्त, भयर सुधाकर, वामन, भोज आदि वर्धमान के गणरत्नमहोदधि की विशेषताएं निम्नलिखित है
|
( १ ) इस ग्रन्थ में उपर्युक्त अनेक प्रकार के व्याकरणसम्प्रदायों के गणपाठों का संकलन है, पर प्रमुख रूप से यह जैन सम्प्रदाय का ही गणपाठ संग्रह है क्योंकि पाणिनि के स्वरवैदिक सम्बन्धी गणों को सम्मिलित न करके वर्धमान ने अपनी जैन दृष्टि का स्पष्ट परिचय दिया है।
(२) इस ग्रन्थ में उद्धृत विभिन्न गणों के अनेक पाठान्तर भी दिए गए हैं जिनका उल्लेख “एके"; "अन्ये" ; "अपरे" आदि की सहायता से किया गया है ।
(३) गणपाठों का संकलन करते समय वर्धमान ने अनेक प्रयोगों के उदाहरण भी दिए हैं। इस प्रक्रिया में वर्धमान ने अनेक कवियों के श्लोकों को भी उद्धृत किया है।
१. Belvalkar, Systems of Sanskrit Grammer. p. 76.
२. मीमांसक. सं व्या० शा० का इतिहास भाग २, पृ० १५७ ।
जन प्राप्य विद्याएं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
१२७
www.jainelibrary.org