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________________ हैमशब्दानुशासन की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह व्याकरण पाणिनीय उत्सर्ग अपवाद शैली पर आधारित न होकर विशुद्ध प्रक्रिया शैली पर आधारित है । यद्यपि अष्टाध्यायी के समान हैम व्याकरण में भी आठ अध्याय हैं पर इसमें सूत्रों का क्रम विषयानुसार है । इस अनुशासन में क्रमशः संज्ञा, स्वरसन्धि, व्यंजनसन्धि, नाम, कारक, स्त्रीप्रत्यय, समास, आख्यान, कृदन्त और तद्धित प्रकरणों का विवेचन है। हैम व्याकरण में, अन्य जैन व्याकरणों के समान, स्वर, वैदिक प्रकरण का अभाव है । परन्तु हैम अनुशासन में नई पद्धति का प्रारम्भ किया गया है वह यह है कि इसके अन्तिम अध्याय में प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के नियमों का विवेचन किया गया है । यद्यपि हेमचन्द्र द्वारा लिखा गया यह व्याकरण प्रथम प्राकृत व्याकरण नहीं है, पर हेमचन्द्र सदृश महान् वैयाकरण आचार्य द्वारा संस्कृत भाषा के व्याकरण में प्राकृत भाषा का व्याकरण जोड़ देना जहां एक ओर प्राकृत भाषा के महत्त्व को विद्वज्जगत् में सुप्रतिष्ठित करता है वहां आचार्य की तुलनात्मक व्याकरण दृष्टि को भी परिपुष्ट करता ही है । अपने व्याकरण को सर्वप्रा बनाने की दृष्टि से हेमचन्द्र ने अपने से पूर्ववर्ती प्रायः सभी महत्वशाली व्याकरण ग्रन्थों से सहायता ली है । पाणिनि व्याकरण से सहायता लेना हेमचन्द्र की उदार व्याकरण दृष्टि का परिचायक है । इसके अतिरिक्त शर्ववर्मा के कातन्त्र व्याकरण, भोज के सरस्वतीकण्ठाभरण सदृश जैनेतर तथा जैनेन्द्र और शाकटायन सदृश जैन व्याकरणों का प्रभूत योगदान सिद्धशब्दानुशासन के निर्माण में माना जाता है। जैनेन्द्र की महावृत्ति और शाकटायन की अमोघावृत्ति से हेमचन्द्र ने पर्याप्त नियमों को यथावत् ग्रहण कर लिया है । उदाहरणतया पाणिनि के "नित्यं हस्ते पाणावुपयमने" (१.४. ७७) शाकटायन के "नित्यं हस्ते पाणी स्वीकृती (२.१.३६) और हम के "नित्यं हस्ते पाणी पाणावुदु वाहे" (३.१.५५) में समानता स्पष्ट है। सिद्ध हैम शब्दानुशासन आठ अध्यायों में विभक्त सूत्रपाठ है। प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। प्रारम्भ के सात अध्यायों में संस्कृत भाषा के तथा अंतिम आठवें अध्याय में प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के नियम हैं। इस प्रकार सूत्रों की संख्या एक से सात अध्यायों तक ३५६६ तथा आठवें अध्याय में १११६ और कुल मिलाकर ४६८५ है जो पाणिनीय अष्टाध्यायी के ३३६६ सूत्रों से लगभग छह सौ अधिक है। इस सूत्रपाठ पर आचार्य की स्वोपज्ञा वृत्तियां है। ये वृत्तियां अनेक प्रकार की हैं। इनमें से एक लघ्वी वृत्ति छह सहस्र श्लोक परिमाण की, दूसरी मध्यावृत्ति बारह सहस्र श्लोक परिमाण की तथा तीसरी बृहती वृत्ति अठारह सहस्र श्लोक परिमाण की मानी जाती है । ऐसा स्वाभाविक रूप से कहा जा सकता है कि ये वृत्तियां अलग-अलग स्तर के पाठकों के लिए लिखी गई होंगी । इन तीन वृत्तियों के अतिरिक्त हेमचन्द्र ने नव्वे सहस्र श्लोक परिमाण का शब्दमहार्णवन्यास अथवा बृहन्यास भी लिखा था जो अब अंशतः ही उपलब्ध और प्रकाशित है । इस समय यह न्यास प्रारम्भ के नौ पादों तक ही प्रकाशित रूप में मिलता है। हेमचन्द्र के अतिरिक्त अन्य कतिपय विद्वानों ने भी इस शब्दानुशासन पर वृत्तियां लिखी थीं । वेल्वाल्कर ने इन वृत्तिकारों के नाम धनचन्द्र, जिनसागर, उदयसौभाग्य, देवेन्द्रसूरि, विनयविजयगणि, मेघविजय गिनवाए हैं। पर आज इन सबके ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं । आचार्य ने अपने ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती प्रायः सभी प्रमुख वैयाकरणों का नाम सादर स्मरण किया है जिनमें पाणिनि पाल्यकीर्ति सहित जैन-अजैन सभी वैयाकरण हैं। भट्टोजि दीक्षित ने जिस प्रकार पाणिनीय अष्टाध्यायी का पूर्ण प्रक्रिया रूपान्तर अपने विख्यात ग्रन्थ सिद्धांतकौमुदी में किया है, उसी प्रकार सिद्ध हैमशब्दानुशासन का पूर्णप्रक्रिया रूपान्तर उपाध्याय मेघविजय ने सन् १७०० में चन्द्रप्रभा नामक ग्रन्थ में किया था । इस ग्रन्थ का दूसरा नाम हेमकौमुदी भी है। इस ग्रन्थ में कुछ शब्दरूपों की सिद्धि पाणिनीय तन्त्र के आधार पर भी कर दी गई है। प्राचीन काल में किसी वैयाकरण को अपना सम्प्रदाय स्थापित करने के लिए व्याकरण के पांचों पाठों की रचना करनी पड़ती थी ऐसा हम ऊपर कह आए हैं। इस दृष्टि से, उपलब्ध ग्रन्थों के आधार पर यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि पाणिनि के बाद हेमचन्द्र ही वास्तविक अर्थों में सम्प्रदाय प्रवर्तक वैयाकरण हुए हैं। पूर्ण वैज्ञानिकता और मौलिकता के बावजूद हेमचन्द्र का सम्प्रदाय पाणिनि सम्प्रदाय के समान उत्तराधिकारियों की एक श्रेष्ठ परम्परा से मण्डित क्यों न हो सका, इसके कारणों का विवेचन आवश्यक होने पर भी प्रस्तुत निबन्ध की सीमाओं में नहीं हो पाएगा। पर इतना निश्चित है कि हेमचन्द्र ने सूत्रपाठ के अतिरिक्त धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ और लिंगानुशासन पाठ की रचना पूर्ण विमर्श के साथ की थी । १. प्रथम शताब्दी ई० म कातंत्र व्याकरण में जिस विषयानुमारी क्रम को प्रारम्भ किया गया था, कम - अधिक मात्रा में आगे बढ़ते-बढ़ते वह क्रम हैम अनु शासन में अधिक परिपक्व रूप में देखने को मिलता है। २. उपाध्याय, बलदेव, संस्कृत शास्त्रों का इतिहास, १९६९, पृ० ५८६ 3. Belvalkar, Systems of Sanskrit Gramnar, p. 75. १२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्य www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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