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________________ अन्य दो नाम भी हैं। ऊपर ( भूमिका भाग में ) कहा जा चुका है कि बुद्धिसागर सूरि ने जैन व्याकरण ग्रन्थों की रचना का कारण ब्राह्मणों द्वारा किए जाने वाले व्यंग्य बाणों में निहित अपमान को माना है। इन उपर्युक्त श्लोकों के आधार पर कह सकते हैं कि आचार्य को अपने ग्रन्थ का नाम “शब्दलक्ष्म" विशेष प्रिय रहा होगा । " प्रमालक्ष्मप्रान्त" में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बुद्धिसागर सूरि ने अपने व्याकरण ग्रन्थ की रचना पूर्ववर्ती वैयाकरणों के ग्रन्थों के आधार पर की थी तथा साथ ही आचार्य ने धातुपाठ, गणपाठ और उणादिपाठ की भी रचना की थी— श्री बुद्धिसागराचार्यः पाणिनि-चन्द्र-जैनेन्द्र विश्रान्त-दुर्ग टीकामवलोक्य धातु सूत्रगणोणादिव्रतबन्धैः सह कृतं व्याकरणं संस्कृतशब्द प्राकृतशब्द सिद्धये।" इसके अतिरिक्त आचार्य ने लिंगानुशासनपाठ की भी रचना की थी जिसका संकेत आचार्य हेमचन्द्र ने दो बार किया है। प्रभावकचरित में लिखा है कि इस व्याकरण का परिमाण आठ सहस्र श्लोक था । विद्वानों की धारणा है कि यह परिमाण आचार्य द्वारा लिखित सभी पाठों से युक्त सम्पूर्ण व्याकरण का माना जाना चाहिए । भद्रेश्वर सूरि - जैनेन्द्र-परवर्ती जैन वैयाकरणों में सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ, लिगानुशासनपाठ - इस प्रकार पंचांग व्याकरण के निर्माण की परम्परा के प्रति बहुत अधिक श्रद्धा प्रतीत होती है । “शाकटायन व्याकरण" में ये पाँचों पाठ थे या नहीं ऐसा कुछ निश्चित रूप से कह पाना कठिन प्रतीत होता है। आचार्य बुद्धिसागर सूरि ने सम्भवतः पांचों पाठों की रचना की थी। आचार्य भद्रेश्वर सूरि द्वारा रचित व्याकरण का कोई भी पाठ इस समय उपलब्ध नहीं होता। इनके व्याकरण का नाम दीपक था ऐसा वर्धमान गणरत्नमहोदधि से ज्ञात होता है । परन्तु यह व्याकरण आजकल उपलब्ध नहीं होता है । आचार्य भद्रेश्वरसूरि ने सूत्रपाठ के अतिरिक्त धातुपाठ, गणपाठ और लिंगानुशासनपाठ की भी रचना की थी ऐसा अन्य उल्लेखों से ज्ञात होता है । सायणविरचित माधवीयाधातुवृत्ति के प्रामाण्य से ऐसा माना जाता है कि श्री भद्रेश्वर सूरि ने धातुपाठ की रचना थी । दूसरी ओर वर्धमान के ही साक्ष्य से ऐसा माना जाता है कि भद्रेश्वर सूरि ने गणपाठ और लिंगानुशासनपाठ की रचना की थी। भद्रेश्वर सूरि का काल वर्धमान से पूर्व ११वीं सदी और १२वीं सदी ई० के मध्य में माना जाता है । आचार्य भद्रेश्वर सूरि बुद्धि सागर सूरि के समान श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के अनुयायी थे । आचार्य हेमचन्द्र सूरि — जैनेन्द्र परवर्ती जैन व्याकरण में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जैन व्याकरण परम्परा और सम्पूर्ण संस्कृत व्याकरण के इतिहास में आचार्य हेमचन्द्र सूरि का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य है । व्याकरण और व्याकरणेतर - दोनों निकायों में हेमचन्द्र का योगदान इतना अद्भुत रहा है कि कृतज्ञ विद्वज्जगत् उन्हें "कलिकाल सर्वज्ञ" के नाम से जानता है । अपने आश्रयदाता राजा सिद्धराज जयसिंह के आदेश से उन्होंने जिस व्याकरणग्रन्थ की रचना की उसका संयुक्त नाम उन्होंने रखा - सिद्ध हैमशब्दानुशासन । आचार्य हेमचन्द्र के जीवन और काल के सम्बन्ध में कुछ सामग्री प्राप्त होती है । इनका जन्म कार्तिक पूर्णिमा विक्रम सं० ११४५ में हुआ माना जाता है। हेमचन्द्र के पिता चाच अथवा चचि वैदिक मतावलम्बी थे जबकि माता पाहिनी जनमतावलम्बिनी थी । मां की कृपा एवं आशीर्वाद से हेमचन्द्र ने श्वेताम्बर जैन आचार्य चन्द्रदेवरि का शिष्यत्व ग्रहण किया। विद्या अध्ययन करने के बाद हेमचन्द्र ने जिन ग्रन्थों की रचना की उनका सम्बन्ध व्याकरण, न्याय, धर्म, काव्य, छन्द आदि से है । आचार्य हेमचन्द्र सूरि का देहावसान ८४ वर्ष की आयु में हुआ । आचार्य हेमचन्द्र का शब्दानुशासन कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । सम्पूर्ण जैन संस्कृत व्याकरण में जो तीन सम्प्रदाय अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं— जैनेन्द्र, शाकटायन और हैम- इनमें से इसका महत्त्व सबसे अधिक है । यह एकमात्र जैन व्याकरण है। जिसके बारे में निश्चित रूप से कह सकते हैं कि यह "पंचांग व्याकरण " था क्योंकि यह उसी रूप में आज भी उपलब्ध है । प्रबन्धचिन्तामणि' में इसका स्पष्ट संकेत बहुत ही विचित्र ढंग से प्राप्त होता है कि आचार्य ने पंचांग-व्याकरण की रचना एक ही वर्ष में पूरी कर ली श्री हेमचन्द्राचार्य श्रीसिद हेमामधानामि पंचागमपि व्याकरणं सपादलक्ष परिमार्ग संवत्सरेण रचयाचक्रे यदि श्री सिद्धराजः सहावीभवति तदा कतिपयैरेव दिनैः पंचांगमपि नूतनं व्याकरणं रचयामहे ।" यदि यह सत्य है तो हेमचन्द्र की विलक्षण प्रतिभा की हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं । : १. उदरम् जठरव्याधि युद्धानि । जठरे त्रिलिंगमिति बुद्धिसागरः । (उद म् ) त्रिलिंगोऽयमिति बुद्धिसागर. ।। २. "श्री बुद्धिसागरमूरिश्चक्रे व्याकरणं नवम् । बष्टकानं तद् श्रीबुद्धिसागरामिधम् ।" ३. मेघाविन: प्रत्ररदीपककतृ युक्ताः "गणरत्न महोदधि, पृ० १. इसकी व्याख्या में स्वय वर्धमान लिखते हैं-" दीपक कर्ता मद्रेश्वरसूरिः । प्रवरश्वास दीपक कर्ता च प्रवरदीपककर्ता प्राधान्यं वास्याधुनिक वैयाकरणापेक्षया ।" ४. पृ० १६०. जैन प्राच्य विद्याएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only १२५ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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