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३. पाल्यकीर्ति ने अपने व्याकरण में संज्ञाओं के नामकरण में जैनेन्द्र की नई किन्तु दुरूह ली का अनुसरण न करके
पाणिनि की अनेक अन्वर्थ ( यद्यपि महती ) संज्ञाओं को यथावत् ग्रहण कर लिया है। इस प्रकार की संज्ञाओं में संयोग, अनुनासिक, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, प्रत्यय, अव्यय, धातु, तद्धित, आदेश, सदृश संज्ञाएं उल्लेखनीय हैं।
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"इष्टिष्टा न वक्तव्यं वक्तव्यं सूत्रतः पृथक् ।
संख्यातं नोपसंस्थातं यस्य शयानुशासने ।।"
यद्यपि पात्यकीर्ति का पूरा व्याकरण उत्सर्ग अपवाद शैली पर ही लिखा हुआ है, तथापि लिंग और समासान्त प्रकरण को समास में तथा एकशेष को द्वन्द्व प्रकरण में रखकर प्रक्रिया शैली का एक सीमा तक अनुसरण किया जिसका बीजवपन कातन्त्र व्याकरण में हो चुका था परवर्ती काल में हैम व्याकरण में जिसको और अधिक आगे बढ़ाया गया । शाकटायन व्याकरण पर मुख्य रूप से दो वृत्तियां हैं। एक वृत्ति स्वयं पाल्यकीर्ति ने अपने आश्रयदाता अमोघवर्ष के नाम से लिखी और उसे अमोधा नाम दिया जिस का संकेत हम ऊपर कर आए हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण वृत्ति है जिसके बारे में पाल्यकीर्ति के व्याकरण के दूसरे वृत्तिकार यज्ञवर्मा का मत है कि इसमें गणपाठ, धातुपाठ, लिगानुशासनपाठ और उणादि के अलावा सम्पूर्ण व्याकरण आ गया है— गणधातुपाठयोगेन धातून लिंगानुसासने लिगगतम्। भगादिकानुणादी मे निश्शेषमत्र वृत्ती विद्यात् अमोषावृत्ति पर प्रभाचन्द्र ने एक न्यास लिखा जो वृत्ति को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास था - "तस्यातिमहतीं वृत्ति संहृत्येयं लघीयसी ।" यज्ञवर्मा द्वारा लिखित चिन्तामणि वृत्ति भी संक्षेप पर अधिक बल दे रही है- " समस्त वाङ् मयं वेत्ति वर्षेणैकेन ।”
इनके अतिरिक्त आचार्य अभयचन्द्र ने पाल्यकीर्ति के व्याकरण के आधार पर “प्रक्रियासंग्रह" नामक ग्रन्थ की रचना की जिसका अनुकरण भावसेन ने "शाकटायन-टीका" और दयालपाल मुनि ने "रूपसिद्धि" नामक ग्रन्थ में किया।
पं० अम्बालाल शाह की सूचना के अनुसार पाल्यकीर्ति ने सूत्र पाठ के अतिरिक्त धातुपाठ और लिंगानुशासनपाठ की भी रचना की थी । जहाँ धातुपाठ का प्रकाशन पं० गौरीलाल जैन ने कुछ समय पूर्व करवाया था, वहाँ लिंगानुशासनपाठ अभी तक अप्रकाशित है । इसकी हस्तलिखित प्रति उपलब्ध है जिसमें ७० पद्य हैं ।
बुद्धिसागर सूरि ऐसा माना जाता है कि श्वेताम्बर जैन आचायों की परम्परा में बुद्धिसागर सूरि प्रथम विद्वान् हैं जिन्होंने व्याकरण ग्रन्थ की रचना की थी। यह ग्रन्थ इस समय उपलब्ध है । बुद्धिसागर सूरि अपने समय के श्रेष्ठ विद्वान थे जिन्होंने व्याकरण के अतिरिक्त छन्दःशास्त्र की भी रचना की थी। बुद्धिसागर सूरि के जीवन के सम्बन्ध में कोई विशेष परिचय प्राप्त नहीं होता । पर उनके द्वारा लिखित व्याकरण के अंत में एक श्लोक मिलता है जिसके आधार पर पं० मीमांसक' ने यह निष्कर्ष निकाला है कि आचार्य बुद्धिसागर सूरि का समय विक्रम को व्यारहवी सदी का उत्तरार्ध है। यदि उपर्युक्त श्लोक प्रामाणिक है तो इसकी सहायता से हम यह निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं कि बुद्धिसागर की कर्मस्थली मध्यभारत का जाबालिपुर ( वर्तमान जबलपुर ) रही होगी ।
जहां जैनेन्द्र के व्याकरण में पाणिनि के प्रत्याहार सूत्रों को आधार मान लिया गया है, वहां उसी व्याकरण के शब्दार्णव ( वृद्धपाठ) पर शाकटायन के प्रत्याहारसूत्रों का प्रभाव माना गया है।
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इस व्याकरण की विशेषता का प्रतिपादन करते हुए टीकाकार यज्ञवर्मा का कथन है कि पाल्यकीर्ति ने अपने सूत्रों में ही पतंजलि की इष्टियों, उपसंख्यानों और वक्तव्यों (अर्थात् वार्तिकों) का समावेश कर लिया है अत: उन्हें अलग से पढ़ने की आवश्यकता नहीं है
आचार्य बुद्धिसागर सूरि का व्याकरणग्रन्थ आजकल अप्रकाशित अवस्था में उपलब्ध है । परन्तु इसके मौलिक होने में सन्देह माना जाता है। आचार्य के नाम से ही इनके ग्रन्थ को बुद्धिसागर व्याकरण" कहा जाता है, पर "पञ्चग्रन्थी" और "शब्दलक्ष्म" इसके
१. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग ५ पृ० २१.
२ श्री विक्रमादित्य नरेन्द्रकालात्
साशीतिके याति समासहस्र सश्रीकजाबालिपुरे तदाच
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पृध मया सप्तसहस्रकल्पम् ।
३ संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ५६१ ।
४. जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग ५, पृ० २२, पा० टि० ३.
आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ
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