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"शब्दशास्त्रं च विधान्तविद्याधर वराभिधे।
न्यासं चक्रे ऽल्पधीवृन्दबोधनाय स्फुटार्थकम् ।।" महान् जैन आचार्य हेमचन्द्र ने अपने शब्दानुशासन में मल्लवादी के 'न्यास" में से उद्धरण दिए हैं। हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण की बहती टीका में भी इस मल्लवादी को स्मरण किया है। इससे प्रतीत होता है कि जैन परम्परा में वामन और उसके श्वेताम्बर टीकाकार मल्लवादी का गौरवपूर्ण स्थान था जो सिद्ध करता है कि वामन स्वयं भी जैन थे। दुर्भाग्य से वामन का व्याकरण पथविधान्तविद्याधर" और उस पर मल्लवादी का 'न्यास' दोनों ही उपलब्ध नहीं हैं। वामन का समय ५वीं सदी ई० और मल्लवादी का समय छठी सदी ई. के आस-पास का माना जाता है। वर्धमान के गणरत्नमहोदधि के साक्ष्य' पर ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वामन ने अपने ग्रन्थ पर स्वयं ही 'बृहत्वत्ति" और "लघुवृत्ति" ये दो टीकाएं लिखी थी। वामन के गणपाठ का उल्लेख भी वर्धमान ने किया है।
पाल्यकोति-जैन परम्परा में यापनीय सम्प्रदाय के आचार्य पाल्यकीति ने एक प्रसिद्ध जैन व्याकरण की रचना की थी जो "जैन शाकटायन व्याकरण" के नाम से प्रसिद्ध है । मूलतः पाल्यकीर्ति रचित व्याकरण का नाम “शब्दानुशासन" है। इस व्याकरण को जैन परम्परा में एवं समग्र व्याकरण परम्परा में कितना महत्वपूर्ण स्थान मिला था, इसके दो उदाहरण देने पर्याप्त रहेंगे। एक यह कि पाल्यकीर्ति यापनीय सम्प्रदाय के आचार्य थे। यापनीय सम्प्रदाय दिगम्बर जैन और श्वेताम्बर-इन दोनों का मध्यवर्ती सम्प्रदाय माना जाता था । जब जैन समाज में इस सम्प्रदाय का प्रचलन समाप्त हो गया तो दिगम्बर और श्वेताम्बर-इन दोनों सम्प्रदायों ने पाल्यकीर्ति को अपना-अपना सम्प्रदायानुवर्ती सिद्ध करने का प्रयास किया। दूसरा यह कि समग्र संस्कृत व्याकरण की परम्परा में पाल्यकीर्ति के ग्रन्थ को इतना अधिक सम्मान मिला कि प्राचीन काल में पाणिनिपूर्ववर्ती महान् व्याकरण-निरुक्तकार शाकटायन के स्तर का वैयाकरण मानते हुए पाल्यकीर्ति के व्याकरण को भी “शाकटायन" अथवा "जैन शाकटायन" के नाम से अभिहित किया गया। पाल्यकीति के शाकटायन व्याकरण के महत्व का प्रतिपादन इस व्याकरण पर यशोवर्मा द्वारा लिखित टीका में एक श्लोक के माध्यम से किया गया है
"इन्द्रचन्दादिभिः शाब्दयंदुक्ततं शब्दलक्षणम् ।
तविहास्ति समस्तं च, यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् ।" आचार्य पाल्यकीर्ति ने अपने व्याकरण की स्वोपज्ञवृत्ति में “अदहदमोघवर्षोऽरातीन्", "अरुणद्वेण : पाण्ड्यान्" आदि दृष्टांतों के से राष्टकट वंश के राजा अमोघवर्ष की इन घटनाओं की ओर संकेत किया है जो लेखक के अपने जीवन में घटी। उसने अपनी वत्ति नाम भी अमोघा वत्ति रखा है। इससे स्पष्ट होता है कि पात्यकीति राजा अमोघवर्ष के समसामयिक किवा उसके सभारत्न हैं। अमोघवर्ष का राज्यकाल ८१४ ई० से माना जाता है। इस आधार पर पाल्यकीति का समय ईसा की 9वीं सदी स्थिर किया जाता है।
यद्यपि पाल्यकीति यापनीय जैन सम्प्रदाय के अग्नगी आचार्य माने जाते हैं, पर उनके व्याकरण के एक सूत्र “घोषनादेवच" १ १७८) के आधार पर पं० युधिष्ठिर मीमांसक ने उन्हें प्रारम्भ में वैदिक मतानुयायी माना है जिनका गोत्र शाकटायन रहा होगा और जो सम्भवतः तैत्तिरीय शाखा के अध्येता ब्राह्मण थे।
पाल्यकीति का शाकटायन व्याकरण शास्त्रीय दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण व्याकरण है। इसकी कुछ विशेषताएं इस प्रकार हैं :१. जहां जनेन्द्र व्याकरण पांच अध्यायों में है वहां यह व्याकरण चार अध्यायों में ही है। प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद
होने के कारण पूरे व्याकरण में कुल सोलह पाद हैं और सूत्रों की कुल संख्या ३२३६ है। कुछ संशोधनों के साथ पाल्यकीर्ति ने पाणिनीय व्याकरण की विशिष्टताओं का पूरा-पूरा उपयोग किया है। पाणिनि के प्रत्याहार सूत्र "ऋलुक" को "ऋक्” कर दिया गया है क्योंकि ऋ और ल एक ही हो गए हैं। संस्कृत भाषा में ल का प्रयोग वैदिक साहित्य के बाद नाममात्र को भी नहीं हुआ है। इसी प्रकार 'हयवरट्' और 'लण्' इन दो सूत्रों को मिला . कर एक कर दिया गया है।
१. "अनुमल्लवादिनं ताकिका:" हेम, २. २. ३६. २. “वामनस्तु बृहत्ती यवामार्षति पठति" - गणरत्नमहोदधि । ३. मीमांसक, यु० सं० व्या शा० का इतिहास भाग-२. स. २०१६, पृ० १४६. ४. Majumdar (ed) History and Culture of Indian people, Vol. V. 1964, p. 8. ५. संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास, भाग २, १९६२ पृ० सं० १९७-८.
जैन प्राच्य विद्याएं
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