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"तैरवधीरिते यत्तु प्रवृतिरावयोरिह । तत्र दुर्जनवाक्यानि प्रवृत्ते सन्निबन्धनम् ।। शब्दलक्ष्म प्रमालक्ष्म यदेतेषां न विद्यते ।
नादिमन्तस्ततो ह्यते पर लक्ष्मोपजीविनः ।। इस श्लोक से यही तात्पर्य निकलता है कि ब्राह्मणों के द्वारा किये जाने वाले तिरस्कार को निरस्त करने के दृष्टिकोण से जैन आचार्यों की संस्कृत व्याकरण रचना में प्रवृत्ति हुई ।
जैन संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किस प्रकार से किया जाना चाहिए यह भी विमर्श का एक आवश्यक विषय है। जैसा कि प्रायः प्रत्येक सम्प्रदाय के साथ होता ही है, जैन सम्प्रदाय के विद्वानों ने भी जैन आचार्यों द्वारा संस्कृत व्याकरण लिखे जाने की प्राचीनता को बहुत दूर तक ले जाने का प्रयास किया है। यह प्रयास तथ्यपूर्ण है या नहीं यह विवाद का विषय हो सकता है। परन्तु इतना निर्विवाद है कि जैन सम्प्रदाय का प्रथम उपलब्ध प्रामाणिक व्याकरण छठी शताब्दी ई० में जैनेन्द्र व्याकरण के रूप में सामने आता है । जैनेन्द्र से पूर्व भी जैन न्याकरण की कोई न कोई परम्परा निश्चित रूप से रही होगी और जैनेन्द्र के उपरान्त तो यह परम्परा निश्चित रूप से है। इसलिए जैनेन्द्र को केन्द्र बिन्दु मानकर जैन संस्कृत व्याकरण की रचना तीन वर्गों में रखकर की जा सकती है। जैनेन्द्र पूर्ववर्ती जैन व्याकरण, जैनेन्द्र व्याकरण और जैनेन्द्र परवर्ती जैन व्याकरण। इन तीन वर्गों में रखकर अध्ययन करने से जैन संस्कृत व्याकरण का अध्ययन एक निश्चित परिधि में रहकर तथ्यपूर्ण ढंग से किया जा सकता है।
संस्कृत व्याकरण को जैन आचार्यों का योगदान दो प्रकार से हुआ है । एक इस रूप में कि स्वयं जैन आचार्यों ने व्याकरण सम्प्रदायों की यथासम्भव प्रतिष्ठा की। इन व्याकरण ग्रन्थों को हम विशद्ध रूप से जैन व्याकरण कह सकते हैं। जैनेन्द्र, शाकटायन, हैम सम्प्रदाय इस कोटि के जैन व्याकरण हैं। दूसरे रूप में जैन आचार्यों का संस्कृत व्याकरण को योगदान इस प्रकार रहा है कि अनेक जैन आचार्यों ने जैनेतर व्याकरण सम्प्रदायों में टीका, वृत्ति, भाष्य आदि के रूप में अनेक ग्रन्थ लिखे हैं । इन ग्रन्थों का अपना महत्व है । विशेष रूप से कातन्त्र और सारस्वत व्याकरणों पर जैन आचार्यों के विविध प्रकार के ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । निष्कर्षतः जैन आचार्यों के संस्कृत व्याकरण को योगदान का अध्ययन दो प्रकार से हो सकता है : (क) जैन व्याकरण, जिसमें जैनेन्द्र व्याकरण को केन्द्र मानकर पूर्ववर्ती
और परवर्ती, इस प्रकार विविध अध्ययन हो सकता है, तथः (ख) जैनेतर व्याकरण सम्प्रदायों पर ज न आचार्यों के ग्रन्थ । प्रस्तुत निबन्ध में अध्ययन के लिए यही आधार अपनाया गया है।
(क) जैन व्याकरण (१) जैनेन्द्र पूर्ववर्ती जैन व्याकरण
आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी द्वारा रचित जैनेन्द्र व्याकरण से पूर्व जैन व्याकरणों की एक लम्बी परम्परा रही थी। दुर्भाग्य से इस परम्परा का एक भो व्याकरण ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं होता । इसलिए कुछ विद्वानों ने ऐसी मान्यता रखी है कि ऐसी किसी भी परम्रा का कोई भी अस्तित्व कभी नहीं रहा । परन्तु जिस प्रकार के उल्लेख एवं सन्दर्भ इस परम्परा के विषय में प्राप्त होते हैं उससे इस परम्परा को प्रामाणिकता ही सिद्ध होती है ।
___ आचार्य देवनन्दी ने अपने जनेन्द्र व्याकरण में अपने से पूर्ववर्ती छह वैयाकरणों के मत नामोल्लेख पूर्वक उद्धृत किये हैं। वे हैं-श्रीदत्त, यशोभद्र, भूतवलि, प्रभाचन्द्र', सिद्धसेन और समन्तभद्र, । इसी प्रकार आचार्य पाल्यकीर्ति ने अपने शाकटायन व्याकरण में इन्द्र सिद्ध नन्दी और आर्यवज्र के मतों का नामोल्लेखपूर्वक प्रयोग किया है । १. प्रेमी नाथूराम, जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण पृ० १२० २. गणे श्रीदन्तस्थास्त्रियाम् १,४३४. ३. कृवृषिमजा यशोभद्रस्य २,१,६६. ४. राद् भूतबले: ३,४,८३. ५. रात: कृतिप्रभाचन्द्रस्य, ४,३,१८०. ६ वेते: सिद्ध सेनस्य, ५,१,७ ७. चतुष्टयं समंतभद्रस्य, ५,४,१४०. ८ जराया इस इंद्रस्याचि, १, २, ३७. ६. शेषात् सिद्धनन्दिन:. २,१, २२६. १०. तत: प्राग् पार्यवज्रस्य, १, २, १३. जन प्राच्य विद्याएँ
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