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________________ इन प्राचीन वैयाकरणों के नामों के बारे में नाथूराम प्रेमी ने अपने ग्रन्थ जैन साहित्य और इतिहास' में लिखा है कि इनमें से किसी ने व्याकरण की रचना की होगी इसमें संदेह है । इस बारे में तर्क देते हुए उन्होंने लिखा है कि सम्भवतः इन विद्वानों ने कुछ विशेष प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया होगा जिन्हें जैनेन्द्र आदि में आदरपूर्वक उद्धृत कर दिया गया है। परन्तु यह विचार वैज्ञानिक प्रतीत नहीं होता। देवनन्दी और पाल्यकीर्ति ने जिस प्रकार से शब्द रचना के सन्दर्भ में इन नामों का उल्लेख किया है, वे निश्चित रूप से वैयाकरणों के नाम ही सिद्ध होते हैं। किसी साहित्यकार द्वारा प्रचलन से हटकर प्रयुक्त किये गये रूपों का इस प्रकार से नामोल्लेख पूर्वक प्रयोग करने की परम्परा संस्कृत व्याकरण में नहीं है। इसके विपरीत वैयाकरणों के मतान्तरों को आदर पूर्वक प्रस्तुत करने के लिए उनके नामों का उल्लेख करने की स्वस्थ परम्परा संस्कृत व्याकरण में है । पाणिनि ने ऐसे अनेक नाम उद्धृत किये हैं जो केवल वैयाकरणों के नाम हैं। अतः पं० मीमांसक' के साथ-साथ हम भी इस बात से सहमत हैं कि ये नाम प्राचीन वैयाकरणों के हैं । पर दुर्भाग्यवश जनेन्द्र पूर्ववर्ती व्याकरण की यह परम्पग अब पूर्णतया लुप्त हो चुकी है। इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि ये सभी आचार्य जैन परम्परा के ही वैयाकरण हैं । जैनेतर व्याकरण ग्रन्थों में उनका उल्लेख न होना यह सिद्ध करता है कि ये सभी जैनेन्द्र पूर्ववर्ती वैयाकरण जैन परम्परा के आचार्य थे। संस्कृत व्याकरण की परम्परा में अब तक की खोजों से ऐसा ज्ञात होता है कि अतिप्राचीन काल से भारत में वैयाकरणों के दो वर्ग थे -ऐन्द्र और माहेश्वर। इन दोनों सम्प्रदायों की स्थापना क्रमशः इन्द्र और महेश्वर नामक वैयाकरणों ने की थी। इन दोनों सम्प्रदाय प्रवर्तक वैयाकरणों के नाम शनैः शनैः इन नामों वाले देवताओं के साथ इस प्रकार घुलमिल गये कि ये दोनों नाम ऐतिहासिक नामों के स्थान पर काल्पनिक नाम प्रतीत होने लगे। परन्तु व्याकरण की परम्परा में ये नाम किसी न किसी रूप में सम्प्रदाय प्रवर्तक वैयाकरणों के रूप में उद्धृत होते रहे। ऐसा माना जाता है कि पाणिनि माहेश्वर सम्प्रदाय के आचार्य थे और वार्तिककार कात्यायन ऐन्द्र सम्प्रदाय के वैयाकरण थे। पाणिनि द्वारा चौदह महेश्वर सूत्रों को यथावत् ग्रहण करना इसी तथ्य का पोषक है । विद्वानों की ऐसी धारणा बनी है कि माहेश्वर सम्प्रदाय के अनुयायी पाणिनि के सूत्रों पर ऐन्द्र सम्प्रदाय के अनुयायी कात्यायन द्वारा वार्तिकों की रचना सम्भवतः दोनों सम्प्रदायों को एक करने का प्रयास था। कुछ विद्वान ऐन्द्र व्याकरण को जैन व्याकरण का आदि ग्रन्थ सिद्ध करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि भगवान् महावीर ने इन्द्र के लिए जिस व्याकरण की रचना की थी उसे उपाध्याय लेखाचार्य ने ग्रहण किया और लोक में उसका प्रचलन ऐन्द्र व्याकरण के रूप में किया । एक विशेष कारिका के आधार पर इस धारणा को पुष्ट करने का प्रयास जैन परम्परा में किया जाता रहा है "सक्को अतत्समक्खं भगवंतं आसणे निवेसिता । सदस्स लक्खणं पुच्छं वागरणं अवयवा इदं ।।" ऐन्द्र व्याकरण की रचना कब हुई इस सम्बन्ध में कुछ भो निश्चित रूप से कहना कठिन है। दिगम्बर जैनाचार्य सोमदेवसूरि ने इन्द्र व्याकरण का उल्लेख किया है । १७ वीं सदी में हुए विनयविजय उपाध्याय और १८ वीं सदी में हुए लक्ष्मीवल्लभ मुनि ने जैनेन्द्र व्याकरण को ही ऐन्द्र व्याकरण मान लिया है। परन्तु यह मत प्राय: स्वीकार नहीं किया गया है। इसका कारण यह है कि महावीर स्वामी का जो काल प्राय: स्वीकार कर लिया गया है, अब तो पाणिनि का व्याकरण ही उसका समकालीन माना जा सकता है, हालांकि मीमांसक ने पाणिनि का काल भो २६०० ई०पू० स्वीकार किया है। इन्द्र प्रोक्त व्याकरण पाणिनि से कहीं प्राचीन है इसमें किसी भी विद्वान् । १. प्रथम संस्करण प० १२० २. मीमांसक, संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास, भाग १, वि० सं० २०२०, पृ० ५००-५०१. ३. मिश्र वेदपति, व्याकरण-वातिक-एक समीक्षात्मक अध्ययन, १९७०. ० ६. ४. (क), बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्य वर्ष मन प्रतिपदोक्तानां शब्दानां शब्दगरायणं प्रोवाच । नन्तं जगाम । महाभाष्य, पस्पशाह निक। (ख) इति माहेश्वराणि सूत्राण्यणादिसंज्ञार्थानि। भट्टोजिदीक्षित सिद्धांतकौपदी संज्ञा प्रकरण । ५. मिश्र, वेदपति, उपाकरग वातिक-एक समीक्षात्मक अध्ययन, १९७०, भामुख पृ० १. ६. वही, प्रामुख पृ० १. ७. तु० शाह, अम्बालाल, जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५, १६६६ १०५. ८. "अावश्यक हरिनिय विन" पौर “हरिभद्री प्रवृत्ति" भाग १, पृ० १८२. है यशस्तिलचम्पू. पाश्वास. १, पृ०६० १०. शाह, अम्बालाल, जैन साहित्य का वृहद इतिहास भाग-५, १६६६ पृ०६ पा० टि० १. ११ मीमांसक, यु०, संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास भाग-१, वि० सं० २०२०, पृ० १८५ से । ११६ आचार्यरत्न श्री देशभषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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