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विद्वान प्रो० डेविड पिवरे महोदय ने सुमति गणि नामक जैन ज्योतिषाचार्य के व्यक्तित्व कृतित्व पर गवेषणात्मक तथ्य प्रस्तुत किए हैं। सोवियत विद्वान डॉ० अलेक्ज़ेंडर बोलोदास्की महोदय ने महावीराचार्य के गणितीय सिद्धान्तों के योगदान परक पक्षों को उद्घाटित किया है। उन्होंने हमें इस तथ्य से भी अवगत कराया कि विभाजन के नियम, संख्या को वर्ग और घन में बदलने की विधियां, भिन्न के घन और घनमूलों को प्राप्त करने की विधि अनुपात के नियम आदि कुछ ऐसे फार्मूले थे जो सर्वप्रथम महावीराचार्य की ही देन थे । सृष्टि विज्ञान पर आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताओं का उल्लेख करते हुए प्रो० जी० आर० जैन महोदय ने जैन एवं हिन्दू सृष्टि विज्ञान की वैज्ञानिकता को विशेष रूप से पुष्ट किया है। जैन आयुर्वेद की यह विशेषता रही है कि वह मधुमद्यमांस से वर्जित औषधिशास्त्र का निर्माण कर सका है। इसी पृष्ठभूमि में आयुर्वेद की जैन परम्परा का विश्लेषण करते हुए आचार्य राजकुमार जैन, डा० राजेन्द्र प्रकाश भटनागर, डा० तेज सिंह गौड़ आदि विद्वानों ने रोगोत्पत्ति और उनके वर्गीकरण, आदि पर रोचक प्रकाश डाला है। श्री वाचस्पति मौद्गल्य ने दिगम्बर जैनाचार्य पार्श्वदेव कृत 'संगीतसमयसार' के सन्दर्भ में गायक के गुण व दोषों से सम्बन्धित संगीत शास्त्रीय पक्ष का निरूपण किया है । जैन व्याकरण की शास्त्रीय विद्या का मूल्यांकन करते हुए डा० सूर्यकान्त बाली महोदय की धारणा रही है कि जैन व्याकरणों ने एक ओर जैनेन्द्र व्याकरण को केन्द्र मानकर व्याकरण शास्त्र को विकसित किया तो दूसरी ओर उन्होंने जैनेतर व्याकरणों पर भी ग्रन्थ प्रणयन कर इस क्षेत्र को समृद्ध बनाया। डा० बाली ने इस तथ्य को विशेष रूप से रेखाङ्कित किया है कि जैन मनीषी अपने तत्व चिन्तन के पूर्वाग्रहों को लेकर व्याकरण शास्त्र की ओर उन्मुख नहीं हुए बल्कि एक तटस्थ भाषाशास्त्री के रूप में वे व्याकरण का अध्ययन करना चाहते थे । संस्कृत के अतिरिक्त प्राकृत अपभ्रंश के व्याकरण पर भी उन्होंने विशेष ध्यान दिया है ।
प्राच्यविद्याओं के अध्ययन की आधुनिक दिशाए
आधुनिक सन्दर्भ मे जैन विद्याओं तथा अन्य भारतीय प्राच्य विद्याओं के संवर्धन एवं विकास परक बौद्धिक गतिविधियों में विराम आ गया है । मध्यकालीन सङ्कीर्ण ज्ञान प्रवृतियों ने जहाँ इसके विकासात्मक परिप्रेक्ष्य को अवरुद्ध किया है वहाँ दूसरी ओर ब्रिटिश कालीन शिक्षा चेतना ने भी भारतीय विद्याओं के प्रचार-प्रसार को हतोत्साहित कर पश्चिमी चिन्तन को ही भारतीय बुद्धिजीवियों पर थोपने के यंत्र किए हैं। आज भी भारत वर्ष में जो ज्ञानार्जन की पद्धति प्रचलित है पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान से पूरी तरह संमोहित है । भारतवर्ष के अनेक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के उच्चस्तरीय अध्ययन के पाठ्यक्रम और अनुसन्धान की प्रवृतियां यूनान आदि मृत सभ्यताओं एवं पश्चिमी जीवन दर्शन को सर्वोच्च स्थान दे रही हैं । भारतवर्ष के आर्यभट, ब्रह्मगुप्त, महावीराचार्य, कौटिल्य, कामन्दक, मनु याज्ञवल्क्य आदि की विचार सरणियाँ उच्चस्तरीय ज्ञान-विज्ञान में सर्वथा उपेक्षित हैं। आधुनिक बुद्धिजीवी उत्कृष्ट भारतीय चिन्तन को सम्प्रदायगत मूल्यों एवं वर्ग चेतना के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त मानते को भूल कर रहा है और इस ऐतिहासिक तथ्य से अनभिज्ञ है कि यूनान आदि के अरस्तू, पैथागोरस आदि विद्वानों ने भारतीय विश्वविद्यालयों से शिक्षा प्राप्त करके ही अपना चिन्तन प्रस्तुत किया था । आज इस तथ्य की भी सर्वथा उपेक्षा की जा रही है कि विश्व के लगभग सभी देशों ने विश्वविद्यालयीय स्तर पर भारतीय विद्याओं को प्रोत्साहित करने के लिए ठोस योजनाएं अपना सी हैं प्राप्य भारतीय विद्याओं की लगभग सभी अध्ययन शाखाओं में विदेशी विद्वान् - युद्ध स्तर पर कार्य कर रहे हैं। जनसत्ता (६ सितम्बर १९८६ ) के सन्दर्भ में एक प्रसिद्ध सोवियत विद्वान् डा० ए० ए० गोरबोवस्की ने अपने ग्रन्थ "बुक ऑफ हाइपोथीसिस में ब्रह्मास्त्र ( एटमबम) के विकास की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि को भारतीय विज्ञान के सन्दर्भ में देखा है । उन्होंने लिखा है “कि ब्रह्मास्त्र से उत्पन्न जिस प्रचंड तापमान का महाभारत में उल्लेख आया है उससे लगता है कि प्राचीन भारत 'के लोग 'एटमबम' से अनजान नहीं थे ।" डा० गोरबोवस्की ने यह भी संभावना व्यक्त की है कि भारतीय वैज्ञानिक विमान बनाने की विद्या को भी जानते थे । 'समराङ्गण सूत्र धार' के उल्लेख इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग ५ के सन्दर्भ में एक अंग्रेज विमान शास्त्री (एयरोनोटिक इन्जीनियर) ले विमानविद्या के 'संकोचन रहस्य को जानकर हतप्रभ हो गए आकाश में आपका विमान शत्रुओं के विमानों से घिर जाए तो आप अपने विमान की सात नम्बर की कील को चलाइए आपके विमान का प्रत्येक अंग सिकुड़ कर छोटा हो जाएगा और आप शत्रु विमानों की अपेक्षा अधिक तीव्र गति से उड़कर बच जाएंगे
यदि
संकोचन रहस्यो नाम - मंत्रांगोपसंहाराधिकोक्तरीत्या अंतरिक्ष े अतिवेगात् पलायमानानां विस्तृतखेटयानानामपायसम्भवे विमानस्थसप्तमकीली बालनद्वारा तदगोपसंहारजियारत्वम् ।
अमेरिका के लब्धप्रतिष्ठित वैज्ञानिक पाणिनी द्वारा रचित अष्टाध्यायी सूत्रों की गणितीय चेतना से अनुरित होकर 'कम्प्यूटर 'प्रणाली' को आधुनिक रूप देने के लिए विशेष प्रयत्नशील है (टाइम्स आफ इण्डिया, ११-६- १६८६) । ये सभी तथ्य भारतीय प्राच्य विद्याओं की आधुनिक सन्दर्भ में उपादेयता को रेखाङ्कित कर देते हैं।
जैन प्राच्य विद्याएँ
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