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क्रमशः झुका या उठा सकती थीं। तालोद्घाटिनी से ताला खुल जाता था । अवस्वापिनी- -सुला देती थी । अन्तर्धान विद्याओं से अदृश्य हुआ. जा सकता था । वेगवती अपहरण कर सकती थी तो आकाश गामिनी से आकाश में गमन किया जा सकता था। संकरी शत्रु से रक्षा करती थी तो वैताली अचेतन को चेतन बना सकती थी ।
लौकिक जैन विद्याए
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ज्ञान की समग्र चेतना के सन्दर्भ में जिस विद्या से मनुष्य का तृतीय नेत्र खुल जाता है और वह अपनी आत्मा का स्वयं दर्शन कर लेता है कि विद्याया दर्शनी है किन्तु यह ज्ञानार्जन प्रक्रिया की अन्तिम स्थिति है उससे पूर्व लौकिक या व्यावहारिक विद्याओं का प्रसंग आता है। भौतिक या पदार्थ विज्ञान सम्बन्धी विद्याए लोक व्यवस्था के प्रवृतिपरक सत्य का विश्लेषण करने में सहायक होती हैं । उसके साथ ही शिल्प एवं कलापरक विद्याओं का विशेष महत्त्व है जो प्रवृति के वैभव की नकल करने का प्रशिक्षण प्रदान करती हैं । ललित एवं उपयोगी कलाओं की सहायता से मनुष्य के जीविकोपार्जन की समस्या भी हल होती है।
जैन परम्परा ने आध्यात्मिक लौकिक दोनों प्रकार की विद्याओं को प्रोत्साहित किया । आध्यात्मिक चिन्तन के क्षेत्र में जैन दर्शन का कितना महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था इसकी एक संक्षिप्त झलक लेख के पूर्वार्ध में दिखाई गई है। दर्शन और ज्ञान की स्पष्ट अवधारणाओं से जैन चिन्तकों ने मानवीय चिन्तन के इतिहास को एक मौलिक दिशा प्रदान की है। लौकिक विद्याओं के क्षेत्र में जैनों ने सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक दोनों दिशाओं में योगदान देते हुए 'भारतीय प्रज्ञा' को विशेष समृद्ध बनाया है ।
जैन परम्परा के अनुसार ऋषभदेव प्रथम राजा थे जिन्होंने भारत की प्रथम राजधानी इक्ष्वाकुभूमि (अयोध्या) में राज्य किया। इनसे पूर्व न राजा था और न राज्य । ऋषभदेव ने ही सर्वप्रथम समाज को व्यवस्थित करने के उद्देश्य से असि मसि - कृषि की शिक्षा दी । शिल्प आदि विविध कलाओं का उपदेश दिया । आदि पुराण के अनुसार ऋषभदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को अर्थशास्त्र, नृत्यशास्त्र; वृषभसेन को गान्धर्व विद्याः अनन्त विजय को वित्रकला, वास्तुकला और आयुर्वेद बाहुति को कामशास्त्र, लक्षण शास्त्र, धनुर्वेद, अश्व-शास्त्र, गजशास्त्र, रत्न परीक्षा, तन्त्र-मन्त्र सिद्धि आदि विद्याओं की शिक्षा दी। उन्होंने अपनी पुत्रियों को लिपि शास्त्र, अंक गणित आदि का भी परिचय कराया जैन आगमिक साहित्य में 'चतुर्दश विद्यालों की मान्यता को विशेष महत्व दिया गया है।' प्राचीन जैन आगमों एवं मध्यकालीन जैन पुराणों महाकाव्यों आदि में ७२ कलाओं के शिक्षण की मान्यता को विशेष वल दिया गया है। लोकिक विषयों में दक्षता एवं निपुणता प्राप्त करना इन कलाओं का उद्देश्य रहा था। बौद्धिक ज्ञान-विज्ञान, रहन-सहन, लोक व्यवहार लोक व्यवस्था एवं व्यावसायिक मूल्यों की दृष्टि से इन ७२ कलाओं की विशेष भूमिका रही थी। समग्र जैन विद्याएं, और कलाएं मानवीय व्यवहार के विविध पहलुओं को शिक्षण-प्रशिक्षण द्वारा सार्थक बनाती हैं । भारतीय शिक्षा संस्था के इतिहास में व्यावसायिक शिक्षा से सम्बन्धित विद्या के लिए 'शिल्प' का प्रयोग होता आया है। बौद्ध एवं जैन शिक्षा व्यवस्था ने व्यावसायिक एवं औद्योगिक विषयों के अध्ययन को विशेष रूप से प्रोत्साहित किया है। जैन पुराणों एवं महाकाव्यों की विद्या विषयक चेतना से इस तथ्य की पुष्टि होती है पद्मानन्द चन्द्रप्रभचरित आदि महाकाव्यों के अनुसार राज कुमारों को युद्ध कला इत्यादि के अतिरिक्त व्यावसायिक शिक्षा से सम्बन्धित कलाओं का भी ज्ञान कराया जाता था। चन्द्रप्रभचरितकार ने 'राज विद्या' को दिया तथा ६४ कलाओं की शिक्षाको 'उपविधा' कहा है। विज्ञान-टेक्नॉलोजी की दृष्टि से भी जैन विद्याओं का अपेक्षित विकास हुआ है। स्वर्ण, लौह, पारस आदि धातुओं के शोधन, खनिज पदार्थों के परिज्ञान, द्रव्य मिश्रण आदि अनेक क्षेत्रों में जैन लेखकों एवं विद्वानों का महत्वपूर्ण योगदान रहता आया है।
जैन साहित्य का बृहद, इतिहास - भाग ५ की ओर दृष्टि डालें तो हम देखते हैं कि जैन मनीषियों ने भगभग २७ विषयों पर महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे तथा विभिन्न बौद्धिक आयामों को अपनी मौलिक प्रतिभा से आलोकित करते आए। वे विषय हैं
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(१) व्याकरण (२) कोश (३) अलंकार (४) छन्द (५) नाट्य ( ६ ) संगीत (७) कला (८) गणित ( ६ ) ज्योतिष (१०) शकुन शास्त्र (१२) निमित्त शास्त्र (१२) स्वप्न विज्ञान (१३) चूड़ामणि (१४) सामुद्रिक शास्त्र (१५) रमल विद्या (१६) लक्षणशास्त्र (१७) आप (१०) अर्ध (१२) कोष्टक (२०) आयुर्वेद (२१) अर्थशास्त्र (२२) नीतिशास्त्र (२३) शास्त्र (२४) रत्न शास्त्र (२५) मुद्रा शास्त्र (२६) धातु विज्ञान और (२७) प्राणि विज्ञान ।
जैन प्राच्य विद्याओं के आधुनिक विकासपरक आयाम
वर्तमान खण्ड में विद्वान लेखकों ने ज्योतिष, आयुर्वेद, संगीतशास्त्र, व्याकरण शास्त्र, सृष्टि विज्ञान, गणित शास्त्र आदि से सम्बद्ध प्राच्य जैन विद्याओं पर अनुसन्धानात्मक दृष्टि डाली है । किसी लेख में शास्त्र विशेष के इतिहास और परम्परा को विशद किया. गया है तो अनेक लेखों में की आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के सन्दर्भ में जैन विद्याओं गुणवत्ता का मूल्याङ्कन भी किया गया है। अमेरिका के १. आदि पुराण, २.४८
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आचार्यरन श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रत्य
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