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भारत में आने वाले आर्य पश्चिम में टिके, मध्यदेश में टिके, कुछ पूर्व में भी खदेड़ दिये गये । पर सम्भवतः मगध तक उनका पहंचना नहीं हुआ होगा। हुआ होगा तो बहुत कम। ऐसा प्रतीत होता है कि कौशल और काशी से बहुत आगे सम्भवतः वे नहीं बढ़े। मगध अदि भारत के पूर्वीय प्रदेशों में वैदिक युग के आदिकाल में यज्ञ-याग-प्रधान वैदिक संस्कृति के चिह्न नहीं प्राप्त होते । ऐसा अनुमान है कि वैदिक संस्कृति मगध प्रभृति पूर्वी प्रदेशों में बहुत बाद में पहुंची, भगवान् महावीर तथा बुद्ध से सम्भवतः कुछ शताब्दियों पूर्व ।
वेदमूलक आर्य-संस्कृति के पहुंचने के पूर्व मगध आर्यों की दृष्टि में निन्द्य था। निरुक्तकार यास्क ने मगध को अनार्यों का देश कहा है। ऋग्वेद में कीकट शब्द आया है, जिसे उत्तरकालीन साहित्य में मगध का समानार्थक कहा गया है। ब्राह्मण-काल के साहित्य में भी कुछ ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं, जिनसे प्रकट है कि तब तक पश्चिम के आर्यों का मगध के साथ अस्पृश्यता का-सा व्यवहार रहा था। शतपथ ब्राह्मण में पूर्व में बसने वालों को आसुरी प्रकृति का कहा गया है। आर्य सम्भवतः अनार्यों के लिए इस शब्द का प्रयोग करते थे, जिनमें निम्नता या घृणा का भाव था।
पहले दल में भारत में आये मध्यदेश में बसे आर्य जब दूसरे दल में आये आर्यों द्वारा मध्यदेश से भगा दिये गये और वे मध्यदेश के चारों ओर विशेषतः पूर्व की ओर बस गये, तो उनका भगाने वाले (बाद में दूसरे दल के रूप में आये हुए) आर्यों से वैचारिक दुराव रहा हो, यह बहुत सम्भाव्य है। उनका वहां के मूल निवासियों से मेल-जोल बढ़ा हो, इसकी भी सहज ही कल्पना की जा सकती है। मेलजोल के दायरे का विस्तार वैवाहिक सम्बन्धों में भी हुआ हो, इस प्रकार एक मिथित नवंश अस्तित्व में आया हो, जो सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से पश्चिम के आर्यों से दूर रहा हो । वैदिक वाङ्मय में प्राप्त व्रात्य शब्द सम्भवतः इन्हीं पूर्व में बसे आर्यों का द्योतक है, जो सामाजिक दृष्टि से पूर्व में बसने वाले मूल निवासियों से सम्बद्ध हो चुके थे। वात्य शब्द की विद्वानों ने अनेक प्रकार से व्याख्या की है। उनमें से एक व्याख्या यह है कि जो लोग यज्ञ-यागादि में विश्वास न कर व्रतधारी यायावर संन्यासियों में श्रद्धा रखते थे, व्रात्य कहे जाते थे । व्रात्यों के लिए वैदिक परम्परा में शुद्धि की एक व्यवस्था है। यदि वे शुद्ध होना चाहते, तो उन्हें प्रायश्चितस्वरूप शुद्ध यर्थ यज्ञ करना पड़ता । व्रात्य-स्तोम में उसका वर्णन है। उस यज्ञ के करने के अनन्तर वे बहिर्भूत आर्य वर्ण-व्यवस्था में स्वीकार कर लिए जाते थे।
भगवान् महावीर और बुद्ध से कुछ शताब्दियां पूर्व पश्चिम या मध्यदेश से वे आर्य, जो अपने को शुद्ध कहते थे, मगध, अंग, बंग आदि प्रदेशों में पहच गये हों व्रात्य-स्तोम के अनुसार प्रायश्चित के रूप में याज्ञिक विधान का क्रम, बहिष्कृत आर्यों का वर्ण-व्यवस्था में पुन: ग्रहण इत्यादि तथ्य इसके परिचायक हैं।
पूर्व के लोगों को पश्चिम के आर्यों ने अपनी परम्परा से बहि त मानते हुए भी भाषा की दृष्टि से उन्हें बहिभूत नहीं माना। ब्राह्मण-साहित्य में भाषा के सन्दर्भ में व्रात्यों के लिए इस प्रकार के उल्लेख हैं कि वे अदुरुक्त को भी दुरुक्त' कहते हैं अर्थात् जिसके बोलने में कठिनाई नहीं होती, उसे भी वे कठिन बताते हैं । व्रात्यों के विषय में यह जो कहा गया है, उनकी सरलतानुगामी भाषा-प्रियता का परिचायक है। संस्कृत की तुलना में प्राकृत में वैसी सरलता है ही। इस सम्बन्ध में वेबर का अभिमत है कि यहां प्राकृत-भाषाओं की ओर संकेत है। उच्चारण सरल बनाने के लिए प्राकृत में ही संयुक्ताक्षरों का लोप तथा उसी प्रकार के अन्य परिवर्तन होते हैं।
व्याकरण के प्रयोजन बतलाते हुए दुष्ट शब्द के अपाकरण के सन्दर्भ में महाभाष्यकार पतंजलि ने अशुद्ध उच्चारण द्वारा असरों के पराभूत होने का जो उल्लेख किया है। वहां उन्होंने उन पर हे अरयः के स्थान पर हेल य: प्रयोग करने का आरोप लगाया है अर्थात् उनकी भाषा में र के स्थान पर ल की प्रवृत्ति थी, जो मागधी की विशेषता है। इससे यह प्रकट होता है कि मागधी का विकास या प्रसार पूर्व में बहुत पहले हो चुका था। उनर प्रदेश के गोरखपुर जिले के अन्तर्वर्ती सहगौरा नामक स्थान से जो ताम्र-लेख प्राप्त हआ है, वह ब्राह्मी लिपि का सर्वाधिक प्राचीन लेख है। उसका काल ई०पू० चौथी शती है। यह स्थान पूर्वी प्रदेश के अन्तर्गत आता है। इसमें र के स्थान पर ल का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है।
ऐसा भी अनुमान है कि पश्चिम के आर्यों द्वारा मगध आदि पूर्वी भूभागों में याजिक संस्कृति के प्रसार का एक बार प्रबल प्रयास किया गया होगा। उसमें उन्हें चाहे तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों में ही सही, एक सीमा तक सफलता भी मिली होगी। पर, जनसाधारण तक सम्भवतः वह सफल ता व्याप्त न हो सकी।
भगवान् महावीर और बुद्ध का समय याज्ञिक विधि-विधान, कर्म-काण्ड, बाह्य शौचाचार तथा जन्म-गत उच्चता आदि के प्रतिकल एक व्यापक आन्दोलन का समय था। जन-साधारण का इससे प्रभावित होना स्वाभाविक था ही, सम्भ्रान्त कलों और राज१. प्रदुरुक्तवाक्य' दुरुक्तमाहुः! ताण्ड्य महाब्राह्मण, पंचविंश ब्राह्मण २. तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्तः पराबभूवः तस्माद् ब्राह्मणेन न म्लेच्छितव नापभाषितवै। म्लेच्छो ह वा एष यदपशब्दः ।
-महाभाष्य,प्रथम प्राह निक, पृ०६ न तत्त्व चिन्तनः आधुनिक सन्दर्भ
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