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आचार्य हेमचन्द्र ने वररुचि द्वारा वर्णित चार भाषाओं के अतिरिक्त आषं, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश; इन तीनों को प्राकृत भेदों में और बताया है। आचार्य हेमचन्द्र ने अर्द्धमागधी को आर्ष कहा है।
त्रिविक्रम, लक्ष्मीधर, सिंहराज और नरसिंह आदि वैयाकरणों ने आचार्य हेमचन्द्र के विभाजन के अनुरूप ही प्राकृत- भेदों का प्रतिपादन किया है । अन्तर केवल इतना सा है, इनमें त्रिविक्रम के अतिरिक्त किसी ने भी आर्ष का विवेचन नहीं किया है। वस्तुतः जैन परम्परा के आचार्य होने के नाते हेमचन्द्र का, अर्द्धमागधी (जो जैन आगमों की भाषा है) के प्रति विशेष आदरपूर्णभाव था, अतएव उन्होंने इसे आ' नाम से अभिहित किया।
मार्कण्डेय ने प्राकृत-सर्वस्य में प्राकृत को सोलह भेदोपभेदों में विभक्त किया है। उन्होंने प्राकृत को भाषा, विभाषा, अपभ्रंश और पैशाच; इन चार भागों में बांटा है। इन चारों का विभाजन इस प्रकार है :
१. भाषा महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी।
२. विभाषा शाकारी, पाण्डाली, शबरी भाभीरिका और टाक्की।
३. अपभ्रंश - नागर, ब्राचड़ तथा उपनागर ।
४. पैशाच-- कैकय, शौरसेन एवं पांचाल ।
नाट्यशास्त्र में विभाषा के सम्बन्ध में उल्लेख है कि शकार, आभीर, चाण्डाल, शबर, द्रमिल, आंध्रोत्पन्न तथा वनेचर की भाषा द्रमिल कही जाती है।
मार्कण्डेय ने भाषा विभाषा आदि के वर्णन के प्रसंग में प्राकृत चन्द्रिका के कतिपय श्लोक उद्धत किये हैं, जिनमें आठ भाषाओं छः विभाषाओं, ग्यारह पिशाच-भाषाओं तथा सत्ताईस अपभ्रंशों के सम्बन्ध में चर्चा की है इनमें महाराष्ट्री आवन्ती शौरसेनी, धमागधी, वाकी, मावधी, प्राच्या तथा दाक्षिणात्या ये आठ भाषाएं, छः विभाषाओं में से द्राविड़ और बोइज मे दो विभाषाए व्यारह पिशाच भाषाओं में से कांचीदेशीय पाण्ड्य पांचाल, गौड़, मागध, ब्राचड़, दाक्षिणात्य, शौरसेन, कैकय और विद
- भाषाए तथा सत्ताईस अपभ्रंशों में बाढ़, साट, वैदर्भ, बावर, आवन्त्य, पाञ्चाल, टाक्क, मालव, कैक्य, गौड, उड़, हैव पाण्ड्य कोन्टल, सिंहल, कालिंग, प्राच्य, काट, काव्य, द्राविड, गौर्जर, आमीर और मध्यदेशीय ये तेईस अपभ्रंश विभिन्न प्रदेशों के नामों से सम्बद्ध हैं। जिन-जिन प्रदेशों में प्राकृतों की जिन-जिन बोलियों का प्रचलन वा वे बोलियां उन-उन प्रदेशों के नामों से अभिहित की जाने लगीं । इतनी लम्बी सूची से आश्चर्यान्वित होने की आवश्यकता नहीं है। किसी एक ही प्रदेश की एक ही भाषा उसके भिन्न-भिन्न भागों में कुछ भिन्न रूप ले लेती है और प्रदेश के नामों के अनुरूप उन उपभाषाओं या बोलियों के नाम पड़ जाते हैं । यद्यपि किसी एक भाषा की इस प्रकार की उपभाषाओं या बोलियों में बहुत अन्तर नहीं होता, पर, यत्किंचित भिन्नता तो होती ही है। उदाहरण के लिए राजस्थानी भाषा को लिया जा सकता है। सारे प्रदेश की एक भाषा राजस्थानी है। पर, बीकानेर-क्षेत्र में उसका जो रूप है, वह जोधपुर क्षेत्र से भिन्न है। जैसलमेर क्षेत्र की बोली का रूप उससे और भिन्न है। इसी प्रकार चित्तोड़ दूंगरपुर, बांसवाड़ा, अजमेर-मेरवाड़ा, कोटा-बूदी आदि हाड़ोती का क्षेत्र, जयपुर या डूंढाड़ का भाग, अलवर सम्भाग, भरतपुर और बोलपुर मण्डल; इन सबमें जन-साधारण द्वारा बोली जाने वाली बोलियां थोड़ी बहुत भिन्नता लिए हुए हैं। कारण यह है कि एक ही प्रदेश में बसने वाले लोग यद्यपि राजनैतिक या प्रशासनिक दृष्टि से एक इकाई से सम्बद्ध होते हैं, परन्तु उस प्रदेश के भिन्न-भिन्न भूभागों में पास-पड़ोस की स्थितियों के कारण अपनी क्ष त्रीय सामाजिक, साँस्कृतिक तथा भौगोगिक भिन्नताओं के कारण परस्पर जो अन्तर होता है, उसका उनकी बोलियों पर पृथक्पृथक् प्रभाव पड़ता है और एक ही भाषा के अन्तर्गत होने पर भी उनके रूप में, कम ही सही, पार्थक्य आ ही जाता है । पिशाचभाषाओं और अपभ्रंशों के जो अनेक भेद उल्लिखित किये गये हैं, वे पैशाची प्राकृत के क्षेत्र तथा अपभ्रंश के क्षेत्र की अनेकानेक बोलियों और उपबोलियों के सूचक है।
प्राकृत के भिन्न-भिन्न रूपों या भाषाओं पर विस्तृत विचार आगे किया जाएगा। यहां तो केवल पृष्ठभूमि के रूप में सूचन मात किया गया है।
प्राकृतों का विकास : विस्तार : पृष्ठभूमि
पूर्व और पश्चिम की संस्कृति तथा जीवन में प्राचीन काल से ही कुछ भेद उपलब्ध होते हैं। पश्चिम के कृष्ण और पूर्व के जरासन्ध जैसे राजाओं के पुराण- प्रसिद्ध युद्धों की श्रृंखला इसकी परिचायक है । आर्यों के भारत में आगमन, प्रसार आदि के सन्दर्भ में विभिन्न प्रसंगों में अपेक्षित चर्चा की गयी है। उसके प्रकाश में कुछ चिन्तन अपेक्षित है ।
१. ऋषीणामिदमाष॑म् ।
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थः
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