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________________ परिवारों तक पर इसका प्रभाव पड़ा। महावीर और बुद्ध के समकालीन कुछ और भी धर्माचार्य थे, जो अपने आपको तीर्थंकर कहते थे । पूरण कश्यप, मल गोसास, अजित केशकंबलि, पकुध कच्चायन तथा संजयवेलति आदि उनमें मुख्य थे बौद्ध वाङ्मय में उन्हें अक्रियावाद, नियतिवाद, उच्छेदवाद, अन्योन्यवाद तथा विक्षेपवाद का प्रवर्तक कहा गया है । यद्यपि आचार-विचार में उनमें भेद अवश्य था, पर मे सबके सब भ्रमण-संस्कृति के अन्तर्गत माने गये है। ब्राह्मण-संस्कृति यज्ञप्रधान दी और धमग-संस्कृति स्वाग-वैराग्य और संयम प्रधान । श्रमण शब्द की विद्वानों ने कई प्रकार से व्याख्या की है। कुछ विद्वानों ने इसे श्रम, सम और शम पर आधृत माना है । फलतः तपश्चर्या का उग्रतम स्वीकार, जातिगत जन्मगत उच्चत्व का बहिष्कार तथा निर्वेद का पोषण; इन पर इसमें अधिक बल दिया जाता रहा है। परम्परा के अन्तर्वतों ये सभी भाचार्य दाक्षिक तथा कर्मकाण्ड बहुसंस्कृति के विरोधी थे यह एक ऐसी पृष्ठभूमि की जो प्राकृतों के विकास और व्यापक प्रसार का आधार बनी। भगवान् महावीर और बुद्ध ने लोक भाषा को अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। सम्भव है, उपर्युक्त दूसरे धर्माचार्यों ने भी लोक भाषा में ही अपने उपदेश दिये होंगे। उनका कोई साहित्य आज प्राप्त नहीं है। महावीर और बुद्ध द्वारा लोक भाषा का माध्यम स्वीकार किये जाने के मुख्यतः दो कारण सम्भव हैं। एक तो यह हो सकता है, उन्हें आर्यक्षेत्र में व्याप्त और व्याप्यमाण, याज्ञिक व कर्मकाण्डी परम्परा के प्रतिकूल अपने विचार 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' जनजन को सीधे पहुंचाने थे, जो लोक भाषा द्वारा ही सम्भव था। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि संस्कृत के प्रति भाषात्मक उच्चता किंवा पवित्रता का भाव था, जो याज्ञिक परम्परा और कर्म काण्ड के पुरस्कर्ता पुरोहितों की भाषा थी। उसका स्वीकार उन्हें संकीर्णसापूर्ण लगा होगा, जो जन-मानस को देखते हुए यथार्थ था । प्राकृतों को अपने उपदेश के माध्यम के रूप में महावीर और बुद्ध द्वारा अपना लिए जाने पर उन्हें (प्राकृतों को ) विशेष वेग तथा बल प्राप्त हुआ। उनके समय में मगध ( दक्षिण बिहार ) एक शक्तिशाली राज्य के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था। उत्तर बिहार में बज्जिसंघ के कतिपय गणराज्य स्थापित हो चुके थे और कौशल के तराई के भाग में भी ऐसी ही स्थिति थो। महावीर वज्जिसंघ के अन्तर्वर्ती लिच्छवि गणराज्य के थे और बुद्ध कौशल के अन्तर्वर्ती मल्लगणराज्य के यहां से प्राकृतों के उत्तरोत्तर उत्कर्ष का काल गतविर शील होता है । तब तक प्राकृत ( मागधी ) मगध साम्राज्य, जो मगध के चारों ओर दूर-दूर तक फैला हुआ था, में राज-भाषा के पद प्रतिष्ठित हो चुकी थी । प्राकृतों का उत्कर्ष केवल पूर्वीय भूभाग तक ही सीमित नहीं रहा । वह पश्चिम में भी फैलने लगा । लोग प्राकृतों को अपनाने लगे। उनके प्रयोग का क्षेत्र बढ़ने लगा । बोलचाल में तो वहां (पश्चिम में ) भी प्राकृतें पहले से थीं ही, उस समय वे धार्मिक क्षेत्र के अतिरिक्त अन्याय लोकजनीन विषयों में भी साहित्यिक माध्यम का रूप प्राप्त करने लगीं। वैदिक संस्कृति के पुरस्कर्ता और संस्कृत के पोषक लोगों को इसमें अपने उत्कर्ष का विलय आशंकित होने लगा : फलतः प्राकृत के प्रयोग की उत्तरोत्तर संवर्द्धनशील व्यापकता की संस्कृत पर एक विशेष प्रतिक्रिया हुई तब तक मुख्यतः संस्कृत का प्रयोग पौरोहित्य कर्मकाण्ड, याज्ञिक विधि-विधान तथा धार्मिक संस्कार आदि से सम्बद्ध विषयों तक ही सीमित था । उस समय उसमें अनेक लोकजनीन विषयों पर लोकनीति, अर्थनीति, सदाचार समाज-व्यवस्था, लोक रंजन प्रभृति जीवन के विविध अंगों का संस्पर्श करने वाले साहित्य की सृष्टि होने लगी । प्राकृत में यह सब चल रहा था। लोक-जीवन में रची-पची होने के कारण लोक-चिन्तन का माध्यम यही भाषा थी; अतः उस समय संस्कृत में जो लोक-साहित्य का सृजन हुआ, उसमें चिन्तन-धारा प्राकृत की है और भाषा का आवरण संस्कृत का उदाहरण के रूप में महाभारत का नाम लिया जा सकता है। महाभारत समय-समय पर उत्तरोत्तर संबद्धित होता रहा है। उसमें श्रमण संस्कृति और जीवन-दर्शन के जो अनेक पक्ष चर्चित हुए हैं. वे सब इसी स्थिति के परिणाम हैं। भाषा वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अन्वेष्टाओं के लिए गवेषणा का एक महत्त्वपूर्ण विषय है । एतन्मूलक (संस्कृत) साहित्य प्राकृत भाषी जन-समुदाय में भी प्रवेश पाने लगा। इस क्रम के बीच प्रयुज्यमान भाषा (संस्कृत) के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुआ । यद्यपि संस्कृत व्याकरण से इतनी कसी हुई भाषा है कि उसमें शब्दों और धातुओं के रूपों में विशेष परिवर्तन का अवकरण नहीं है, पर फिर भी जब कोई भाषा अन्य भाषा-भाषियों के प्रयोग में आने योग्य बनने लगती है या प्रयोग में आने लगती है, तो उसमें स्वरूपात्मक या संघटनात्मक दृष्टि से कुछ ऐसा समाविष्ट होने लगता है, जो उन अन्य भाषा भाषियों के लिए सरलता तथा अनुकूलता लाने वाली होती है। उसमें सादृश्यमूलक शब्दों का प्रयोग अधिक होने लगता है। उसका शब्द कोश भी समृद्धि पाने लगता है । शब्दों के अर्थों में भी यव-तत्र परिवर्तन हो जाता है। दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है, ये नये-नये अर्थ ग्रहण करते लगते हैं। विकल्प और अपवाद कम हो जाते हैं। साथ ही साथ यह घटित होता है, जब अन्य भाषा-भाषी किसी शिष्ट भाषा का प्रयोग करने लगते हैं, तो उनकी अपनी भाषाओं पर भी उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता । सब कुछ होते हुए भी भगवान महावीर और बुद्ध के अभियान के उत्तरोतर गतिशील और अभिवृद्धिशील होते जाने के कारण संस्कृत उपर्युक्त रूप में सरलता और लोक नवीनता ग्रहण करने पर भी प्राकृतों का स्थान नहीं ले सकी। अतएव तदुपरान्त संस्कृत में जो साहित्य प्रणीत हुआ, वह विशेषतः विद्वद्भोग्य रहा, उसकी लोक-भोग्यता कम होती गयी लम्बे-लम्बे समास, दुम्ह सन्धि-प्रयोग, शब्दालंकार या शब्दाडम्बर, कृत्रिमतापूर्ण पद रचना और वाक्य रचना से साहित्य जटिल और क्लिष्ट होता गया। सामान्य पाठकों की पहुंच उस तक कैसे होती ? | १६२ Jain Education International आचार्य रत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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