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प्रसत शब्द संख्या में थोड़े से हैं। उसी प्रकार प्रतीकात्मक शब्द भी प्राय: पारिवारिक सम्बन्धों की ज्ञापकता से बहुत दूर नहीं जाते वे भी संख्या में सीमित ही हैं।
प्रतीकात्मक आदि प्रारम्भ में प्रयुज्यमान शब्दों के सादृश्य के आधार पर अन्यान्य शब्द अस्तित्व में आते गये, भाषा विकास की ओर गतिशील रही, ऐसी कल्पना भी सार्थक नहीं लगती। जैसे, प्रतीकात्मक शब्दों के विषय को ही लें। बच्चों का एक ससीम जगत् है। उनके सम्बन्ध और आवश्यकताएं सीमित हैं। उनकी आकांक्षाओं के जगत् का सम्बन्ध मात्र खाना, पीना, पहनना, ओढ़ना, सोना आदि निसर्गज मल लिप्साओं से दूर नहीं है । इस स्थिति के परिप्रेक्ष्य में जो सांगेगिक ध्वनियां या शब्द प्रादुर्भूत होते हैं, उनके द्वारा ज्ञाप्यमान अर्थ बहुत सीमित होता है। उनसे केवल अत्यन्त स्थूल पदार्थों और भावों का सूचन सम्भव है। सूक्ष्म भावों की परिधि में वे नहीं पहुंच पाते। भाषा की उत्पत्ति: अवलम्बन : निराशा
भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में इस प्रकार अनेक मत आविर्भूत हुए, चर्चित हुए, परिवर्तित हुए, पर, अब तक किसी सर्वसम्मत निष्कर्ष पर पहुंचा नहीं जा सका। इसकी प्रतिक्रिया कुछ मूर्धन्य विद्वानों के मन पर बड़ी प्रतिकूल हुई। उन्हें लगा कि भाषा के उद्गम या मूल जैसे विषय की खोज करना व्यर्थ है; क्योंकि अब तक की गवेषणा और अनुशीलन के उपरान्त भी किसी वास्तविक तथ्य का उद्घाटन नहीं हो सका।
कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्राध्यापक एडगर स्टूविण्ट ने लिखा है : "अत्यधिक निरर्थक तर्क-वितर्क के उपरान्त भाषा विज्ञान-वेत्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मानवीय भाषा के उद्गम के सम्बन्ध में प्राप्त सामग्री कोई साक्ष्य उपस्थित नहीं करती।"
इटली के सुप्रसिद्ध विद्वान् मोरियो-पाई का भी इस सम्बन्ध में इसी प्रकार का विचार है । उन्होंने लिखा है : "वह एक तथ्य, जिस पर सभी भाषा वैज्ञानिक पूर्णतया सहमत हैं, यह है कि मानवीय भाषा के उद्गम की समस्या का अभी तक समाधान हो नहीं पाया है।"
अमेरिकन भाषा-शास्त्री जे० कैण्डिएस ने इसी बात को इन शब्दों में प्रकट किया है : "भाषा के उद्गम की समस्या का कोई भी सन्तोषजनक समाधान नहीं हो पाया है।"
विद्वानों के उपयुक्त विचार निराशाजनक हैं। किसी विषय पर एक दीर्घ अवधि तक अनवरत कार्य करते रहने पर भी जब अभीप्सित परिणाम नहीं आता, तब कुछ थकान का अनुभव होने लगता है। थकान के दो फलित होते हैं—एक वह है, जहां आशा मुरझा जाती है। उसके पश्चात् आगे उसी जोश के साथ प्रत्यन चले, यह कम सम्भव होता है । दूसरा वह है , जहां थकान तो आती है, पर जो अदम्य उत्साह के धनी होते हैं, वे थकान को विश्राम बना लेते हैं तथा भविष्य में अधिक तन्मयता एवं लगन से कार्य करते जाते हैं। खोज पर प्रतिबन्ध : विचित्र निर्णय ।
लगभग एक शताब्दी पूर्व को एक घटना से ज्ञात होगा कि संसार के भाषा वैज्ञानिक भाषा की उत्पत्ति का आधार खोजतेखोजते कितने ऊब गये थे। बहुत प्रयत्न करते रहने पर भी जब भाषा की उत्पत्ति का सम्यक्तया पता नहीं चल सका, तो विद्वानों में उस ओर से पराङ्मुखता होने लगी। कुछ का कथन था कि भाषा की उत्पत्ति-सम्बन्धी यह विषय भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का नहीं है। यह नृवंश-विज्ञान या मानव-विज्ञान का विषय है । मानवजाति का विविध सन्दर्भो में किस प्रकार विकास हुआ, उसका एक यह भी पक्ष है। कुछ का विचार दूसरी दिशा की ओर रहा। उनके अनुसार यह विषय प्राचीन इतिहास से सम्बद्ध है। कुछ विद्वानों का अभिमत था कि भाषा-विज्ञान एक विज्ञान है । भाषा की उत्पत्ति का विषय इससे सम्बद्ध है। इस पर विचार करने के लिए वह ठोस सामग्री और आधार चाहिए; जिनका वैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सके। कल्पनाओं पर विज्ञान नहीं टिकता। इसके वैज्ञानिक परीक्षण और अनुसन्धान के लिए आज प्रत्यक्षतः कोई सामग्री प्राप्त नहीं है । भाषा कब उत्पन्न हुई, कोई भी समय की इयत्ता नहीं बांध सकता। हो सकता है, यह लाखों वर्ष पूर्व की बात रही हो, जिसका लेखा-जोखा केवल अनुमानों के आधार पर कल्पित किया जा सकता है। वैज्ञानिक कसौटी पर 1. After much futile discussion linguists have reached the conclusion that the data with which they are
concerned yield little or no evidence about the origin of human speech. -An Introduction to Linguistic Science, p. 40, New Haven, 1948. If there is one thing on which all linguistics are fully agreed, it is that the problem of the origin of human speech is still unsolved.
-The Story of Language, p. 18, London, 1952, ............. The problem of the origin of language does not admit of only satisfactory solution.
--J. Kendr yes, Language, p. 315, London, 1952
आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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