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________________ जॉनसन का निष्कर्ष : जॉनसन ने चार सोपान स्वीकार किये, जिनसे भाषा का विकास हुआ। उनके अनुसार पहला सोपान है - भावव्यंजक ध्वनियां । बुभूक्षा, तृषा, कामेच्छा, प्रसन्नता, अप्रसन्नता, भीति, कोप आदि भाव जब मनुष्य के मन में उभरते हैं, तब वह उन्हें व्यक्त करना चाहता है । भाषा उसे प्राप्त नहीं है; इसलिए बन्दर आदि पशु जैसे इन भावों को कुछ ध्वनियों से प्रकाशित करते हैं, मनुष्य भी इनकी अभिव्यक्ति के लिए कुछ मुख ध्वनियों का उपयोग करता है। भाषा के विकास का यह आदि-चरण है । वे ध्वनियां अमुक-अमुक भावों की अभिव्यंजना की इंगिल या प्रतीक बन जाती है। पूर्व चर्चित मनोभावाभिव्यंजना (Intejectional Theory) से यह स्थापना पृथक् है वहां आकस्मिक भावोद्रेकरू सहसा मुंह से निकल पड़ने वाली ध्वनियों का विवेचन है और यहाँ आवश्यकता, उत्सुकता असहिष्णुता, कानपणा आदि से अभिभूत होकर जब मानव ध्वनियां प्रकट करने का प्रयत्न करता है, परिणामस्वरूप उसके मुंह से जो ध्वनियाँ निःसृत होती हैं, उनका समावेश है । सहसा ध्वनि का निकल पड़ना और आवश्यक मान कर ध्वनियां निकालना; दोनों पृथक्-पृथक् हैं । भाषा के विकास का दूसरा सोपान अनुकरणात्मक शब्दों का है। पशुओं की बोलियों के के नाम से जो विवेचन किया गया है, जॉनसन का लगभग वही अभिप्राय है 1 अनुरणन भाव संकेत : इंगित :- जॉनसन तीसरा सोपान भाव-संकेतों या इंगितों का बतलाते हैं। इनका भी आधार अनुकरण ही है, पर, यह अनुकरण बाह्य पदार्थों, पशु-पक्षियों या वस्तुओं से सम्बद्ध नहीं है । यह अनुकरण जिल्ह्वा आदि द्वारा अंगों का अंग-संकेतों का, उनमें भी प्रमुखतः हाथों का है जॉनसन इसे Unconscious Imitation कहते हैं, अर्थात यह ऐसा अनुकरण है, जिसका अनुकर्ता को स्वयं भी कोई भान नहीं रहता। उनका ऐसा अभिप्राय प्रतीत होता है कि मन में जब-जब एक विशेष प्रकार का भाव उभार में आता है, देह के अंगों में एक विशेष प्रकार का स्पन्दन होता है । क्रोध और दुःसाहस की मनोदशा में मनुष्य तनकर खड़ा हो जाता है, उसका सीना तन जाता है, होठ फड़कने लगते हैं, भयाक्रान्त होने पर वह दुबक जाता है (सिकुड़ जाता है), उल्लासपूर्ण मिलन- मुद्रा में बाहें फैला देता है, दृढ़ निश्चय, प्रतिज्ञा या आक्रमण के भावावेश में भुजाएं उठा लेता है, चुनौती के भाव में सामने की वस्तु पर हथेली दे मारता है। ये आंगिक क्रिया-प्रक्रियाएं होती रहती है और उनके अनुकरण पर अननुभूत रूप में Unconsciously वामिन्द्रिय द्वारा कुछ शब्द उच्चारित होते रहते हैं । अनेक भावों के प्रकाशक शब्दों के उद्भव का वह प्रकार है। जॉनसन सम्भवतः यही कहना चाहते हैं । सूक्ष्म-भ -भावों की अभिव्यंजना :- - सूक्ष्म भावों के द्योतक शब्दों के उद्भव के सम्बन्ध में जॉनसन का कहना है कि ज्यों-ज्यों मानव का उत्तरोत्तर मानसिक विकास होता गया, शनैः-शनैः सूक्ष्म भावों की अभिव्यंजना के लिए भी कुछ ध्वनियां या शब्द उद्भावित करता गया । भाषा के चार सोपानों में यह अन्तिम सोपान है । अनुकरण तथा निर्जीव वस्तुओं के जॉनसन ने भाषा के अनेक पहलुओं पर विस्तार से विचार करने का प्रयत्न किया है। स्वरों और व्यंजनों का विकास किस प्रकार हुआ, इस पर भी प्रकाश डाला है। ध्वनियों के साथ अर्थों के सम्बन्ध की स्थापना पर भी चर्चा की है। उदाहरणार्थ, उनके अनुसार जिन धातुओं के आरम्भ में ऋकार या रकार होता है, वे धातुए गत्यर्थक होती हैं; क्योंकि ऋकार या रकार के उच्चारण में जिह्वा विशेष गतिशील होती है या दौड़ती है। इसी प्रकार और भी उन्होंने विश्लेषण किया है। एक विशेष बात जॉनसन यह कहते हैं कि आदि मानव ने अपने शरीर में तरह-तरह के Curves == आकुंचन - मोड़ देखे । उनका अनुकरण करते हुए उसने कतिपय मूल भावों को सूचित करने वाले शब्दों का सर्जन किया। भाव-संकेतों का अभिप्राय :- प्रस्तुत प्रसंग में जॉनसन ने तीसरे सोपान में जो भाव-संकेतों की चर्चा की है, उस पर सूक्ष्मता से विचार करने की आवश्यकता है। मानव ने अपने देह के हाथ आदि अंगों के परिचालन के आधार पर विविध ध्वनियों की सृष्टि की, यह समझ में आने योग्य नहीं है। अंग-विशेष के हलन चलन या स्पन्दन से ध्वनि विशेष का सम्बन्ध जुड़ना कल्पनातीत लगता है । जैसे, यदि कोई व्यक्ति क्रोधावेश में हो, दांत पीसने लगे, आक्रमण की मुद्रा में हाथ उठा ले, तो समझ में नहीं आता, किसी ध्वनि द्वारा क्या इसे प्रकट किया जा सकता है ? ध्वनि का अपना क्षेत्र है, देह-चालन से कोई विशेष आवाज तो निकलती नहीं, फिर किस रूप में उसका अनुकरण सम्भव है ? जॉनसन ने अंग-परिचालन के साथ ध्वनि उच्चारण का ताल-मेल बिठाने का जो प्रयत्न किया है, वह अपने-आप में नवीन अवश्य है, पर, युक्ति संगत नहीं लगता । धातुओं के आदि अक्षर विशेष अर्थ विसंगति :- धातुओं के आदि अक्षरों का विशेष अर्थों के साथ तालमेल बिठाना भी सूक्ष्मपर्यालोचन करने पर यथार्थ सिद्ध नहीं होता। ऋकार या रकार से प्रारम्भ होने वाली धातुओं का जो उल्लेख गत्यर्थकता के सन्दर्भ में किया गया था, उनके समकक्ष जो दूसरी गत्यर्थक धातुए हैं और जिनका प्रारम्भ ऋ या र से नहीं होता, उनका क्या होगा ! गम् धातु गत्यर्थक है। वह ‘ग्' से प्रारम्भ होती है । 'ग' के उच्चारण में वागिन्द्रिय का कोई अंग 'र्' के उच्चारण की तरह दौड़ता नहीं, फिर उपर्युक्त स्थापना की संगति कैसी होगी ? गम् की तरह अन्य भी कितनी ही धातुएं होंगी, जो गत्यर्थक हैं, जिनका प्रारम्भ ऋ या १४८ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन सम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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