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________________ तुलसी ने परस्त्रीविषयक नैतिकता के साथ ही लोकाचार की कतिपय अन्य विविधताओं को भी इसमें जोड़ दिया। अर्थात् दूसरे से द्रोह, दूसरे की नारी में आसक्ति, पर धन पर दृष्टि और दूसरों के विषय में विवाद फैलाने वाला नीच, पशु, पापी है और केवल मानुष देह धारण कर उसे कलंकित कर रहा है । कामागिद्धिष्यभवं दुक्खं दुख काम भोगों की अभिलाषा से उत्पन्न होता है। महावीर जो की इस वाणी के दिग्दर्शन हमें तुलसीकृत रामचरित मानस के किष्किन्धाकाण्ड में होते हैं । यहां वानरराज सुग्रीव श्रीरामचन्द्र महाराज से कहते हैं नाथ विषय सम मद कछु नाहीं । मुनि मन मोह करन क्षण माहीं ॥ इसी प्रकार - अर्थात् महावीर वाणी के अनुसार जो अपनी आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्त्वतः भिन्न तथा ज्ञापक स्वरूप जानता है, वह सब शास्त्रों को जानता है । शरीर और आत्मा की इसी भिन्नता को तुलसी साहित्य में और भी स्पष्ट कर दिया गया है जो अप्पाणं जाणदि असुइ- सरीरादु तच्चदो भिण्णं । जाणग स्व-सव्वं सो सत्यं जाणदे सव्वं ॥ शरीर को आत्मा से पृथक् मानने के सिद्धान्त की तारा को उपदेश देते हुए श्रीरामचन्द्र कहते हैं— Jain Education International तुलसी काया खेत है, मनसा भयो किसान । पाप पुण्य बीज हैं, बुऐ को सीन्हें दान ॥ पुष्टि बाली-वध प्रसंग में भी होती है। वहां बाली के मृत शरीर के पास बैठी क्षिति जल पावक गगन समीरा प्रकट सो तनु तम आगे सोवा । अर्थात् शरीर पांच तत्त्वों से निर्मित पदार्थ है किन्तु जीव यानि आत्मा नित्य और शाश्वत है। ण जीवो जदुसहाथी जीवो सचेवणो ति ॥ I पंच रहित यह अधम शरीरा ॥ जीव नित्य तुम केहि लगि रोवा ॥ जैन तत्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ जीव जड़ स्वभाव वाला नहीं है। जीव सचेतन है। तुलसी ने इसी बात को इस प्रकार व्यक्त किया है ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥ 'श्रमण' की जो-जो विशेषतायें महावीर वाणी में व्यक्त की गई हैं वही विशेषतायें तुलसी के रामचरितमानस में भगवान् के 'अनन्य सेवक' के लिए व्यक्त की गई हैं (१) समणो सम सुह दुक्खो - प्रवचनसार अर्थात् जो सुख दुःख में समता भाव रखता है वह श्रमण है । (२) समह स य जे भिक्खू शकालिक सूत्र । अर्थात् जो समान रूप से सुख-दुःख को सहन करता है, वह भिक्षु है । (३) समलोट्ठकं चणो पुण जीविद मरणे समो समणो । - -प्रवचनसार अर्थात् जो मिट्टी के ढेले और स्वर्ण में तथा जीवन-मरण में समान भाव रखता है, वह श्रमण है। श्रमण की उपरोक्त मूल चेतना श्रीरामचरितमानस के उत्तर काण्ड के निम्न पद में अभिलक्षित है --- । नहि राग न लोभ न मान मदा । तिनके सम वैभव वा विपदा । यहि ते तव सेवक होत मुदा । मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ॥ करि प्रेम निरन्तर नेम लिए पद पंकज सेवत शुद्ध हिए। सम मानि निरादर आद रही। सब संत सुखी बिचरंत मही ॥ " और सोक मोह भय हरय दिवस-निदेशकाल तह नाहीं । तुलसीदास यहि शाहीन संगम निरमूल न जाही ॥-विनय पत्रिका For Private & Personal Use Only ८६ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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