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________________ करहिं मोहबन नर अध नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना। काल रूप तिन्ह कह मैं भ्राता । सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता॥ तुलनीय- वसुधम्मि वि विहरंता पीडंण करेंति कस्सइ कवाई। जीवेसु दयावण्णा माया जह पुत्तंभदेमु॥ मूलाचार के इस पद में साधुजनों के जिस स्वभाव का वर्णन किया गया है उसे ही तुलसी ने अपने श्रीरामचरितमानस में इस प्रकार कहा है बंदऊ सन्त समान चित हित अनहित नहिं कोउ। अंजलि गत शुभ सुमन जिमि, सम स गन्ध कर दोउ॥ महावीर वाणी में जहां सन्तों को सभी पर वात्सल्य रखने की बात कहकर उन्हें माता की उपमा दी है वहाँ तुलसी ने उन्हें सुगन्धित पुष्प कहकर सारे वातावरण को सुगन्धित करने वाला बना दिया। बात एक ही है परन्तु मां का वात्सल्य तो केवल अपने ही पुत्र पर होता है किन्तु सुगन्धित पुष्प द्वारा पूरे समाज को सुगन्धित करने की बात से निश्चय ही 'साधु' की 'साधुता' भली भांति प्रतिष्ठित कर दी गई है। जीववहो अप्पबहो, जीविदया अप्पणो दया होइ॥ "भक्त परीक्षा" की इस उक्ति की तुलसी ने लोक भाषा में कितनी मनोहारी व्यंजना की है ! - परहित सरिस धरम नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥ पहले में दूसरे का वध करना अपना वध और दूसरे पर दया करना अपने पर ही दया करना बताया गया है किन्तु तुलसी ने इसी बात को 'परहित' के समान कोई धर्म नहीं और 'परपीड़न' के समान कोई पाप नहीं कहकर अप्रत्यक्ष रूप से महावीर के 'अहिंसा' सिद्धान्त का ही प्रतिपादन कर दिया है। पापस्सागमदार असच्चवयणं अर्थात् असत्य वचन पाप के आगमन के लिए द्वार के समान है—महावीर जी की इसी वाणी के तुलसी-साहित्य में इस प्रकार दर्शन होते हैं नहिं असत्य सम पातक पुंजा, अर्थात् असत्य के समान कोई पापों का समूह नहीं है। एक में असत्य को पापों के आगमन का द्वार बताया गया है और दूसरे में स्वयं पाप-समूह । वेरग्गपरो साहु परदव्वपरम्मुहो य जो होदि । अर्थात् जो परद्रव्य से विरक्त होता है वही साधु वैरागी होता है इस महावीर वाणी का तुलसी ने कितना सुन्दर विवेचन किया है परधन पत्थर मानिये परतिय मातु समान । इतने से हरि ना मिलें तुलसीदास जुबान ॥ भक्त कवि की अपने हरि' के पति भावुकता सचमुच मनोहारी है। जीवो बंमा जीवम्मि द्वारा महावीर वाणी में जीव में ब्रह्म का आरोपण किया गया किन्तु गोस्वामी जी ने ब्रह्म जीव इव सहज संघाती कहकर दोनों का पृथक् अस्तित्व अक्षुण्ण रखकर उनके साहचर्य का भी निर्देश कर दिया है। जो मण्णदि पर-महिलं जणणी-बहिणी-सु आइ सारिच्छं। मण-वयणे काएण वि वंभ-वई सो हवे थूलो ॥ अर्थात् जो मन, वचन और शरीर से पराई स्त्री को माता, बहिन और पुत्री के समान समझता है, वह श्रावक स्थूल ब्रह्मचारी है। महावीरवाणी के इस भाव का तुलसी साहित्य में अनेक स्थलों पर विशद वर्णन किया गया है । यथा अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सन सठ कन्या सम ए चारी॥ इन्हहि कुदृष्ठि बिलोकइ जोई। ताहि बधे कछु पाप न होई॥ एक की वाणी में पराई स्त्री को माता, बहिन और पुत्री मानने वाला ब्रह्मचारी है तो दूसरे के विचार में ऐसा न मानने वाले को मार देने में भी कोई पाप नहीं है। इतना ही नहीं अपितु तुलसी इस मामले में कुछ और भी आगे बढ़ गए प्रतीत होते हैं परद्रोही परदार रत पर धन पर अपवाद । ते नर पामर पापमय देह धरें मनुजाद ।। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्व ८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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