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________________ आधुनिक धार्मिक एकता के परिप्रेक्ष्य में तुलसी साहित्य व महावीर वाणी में भाव-साम्य श्री जगत भंडारी धर्म मानव को मानव से जोड़ता है तथा एक ऐसे अन्तिम लक्ष्य तक पहुंचा देता है जहां सभी मतभेद समाप्त हो जाते हैं तथा साम्प्रदायिक घेरा बंदी छिन्न-भिन्न हो जाती है, यदि कुछ शेष बचता है तो वह है 'सत्यं शिवं सुन्दरम्'। जैन धर्म की आधारशिला दर्शन के इन्हीं गहन विचारों पर आधारित है और इसका दर्शन तर्क की उस कसौटी से अनुप्राणित है जिसमें अनेकान्तवाद का सप्तरंगी इन्द्रधनुष अपनी आभा से स्वयं तो कांतिमान् है ही, समग्र दर्शन जगत् के भाव-वैविध्य को भी समता और एकता का आलोक प्रदान करता है। ऐसा कभी हो नहीं सकता कि वीतरागी की वाणी पक्षपात पूर्ण हो अथवा अल्पकालिक महत्त्व को लिए हुए हो। उसके पीछे केवल एक ही भावना रहती है-मानव-कल्याण हेतु मार्ग प्रशस्त करना । धार्मिक सद्भावना आज के युग की अत्यावश्यक मांग है । इतिहास के किसी युग में शायद ऐसा रहा था जब मतभेदों को उभारकर मानव-मानव के बीच कृत्रिम दीवारें खड़ी की गईं परन्तु आज बीसवीं सदी के चिन्तक एक ऐसे धर्म की कल्पना को संजोए हुए हैं जिसमें सभी धार्मिक विचारों का ऐक्य समाहित हो और साम्प्रदायिक तनाव को समाप्त किया जाए। इसी उद्देश्य से अनुप्रेरित होकर प्रस्तुत लेख में हिन्दू धर्म तथा जैन धर्म के धार्मिक सद्भाव एवं वैचारिक समता का दिग्दर्शन कराया गया है जो क्रमशः गोस्वामी तुलसी दास तथा भगवान् महावीर की वाणी पर आधारित है। हिन्दी साहित्य-संसार में श्रीराम-काव्य रूपी 'कोर' के संयोजक गोस्वामी तुलसीदास ने---- नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोपि, स्वान्तः सुखाय तुलसीरघुनाथगाथाभाषा निबद्धमतिमंजूलमातनोति कह कर अपने काव्य में वेद-शास्त्र-पुराणों, सभी राम काव्यों तथा 'कतिपय अन्य' के समावेश की घोषणा कर दी। यह 'क्वचिदन्यतोपि' इस संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय इसलिए है कि जिन 'अन्यों' से तुलसी का भावनात्मक सामंजस्य नहीं भी हो सका था उनकी भी विशेष भाव-कलियों को उन्होंने अपनी काव्य-वाटिका में सुसज्जित कर दिया। इस भाव से जब हम तुलसी साहित्य का, विशेष रूप से उनके ग्रन्थसम्राट् श्री रामचरितमानस का अध्ययन करते हैं तो हमें कई स्थलों पर महावीर वाणी के दर्शन होते हैं। वाणी का यह समावेश कई स्थलों पर तो प्रत्यक्ष परिलक्षित होता है और कई स्थलों पर अप्रत्यक्ष रूप में। निश्चय ही इससे तुलसी की मानसिक विराटता और गुण ग्राहकता की पुष्टि होती है। सर्व प्रथम अहिंसा को ही लें। प्रातः स्मरणीय भारत गौरव आचार्य रत्न १०८ श्री देशभूषण महाराज के कथनानुसार संसार के सभी धर्मों में परम व सर्व स्वीकार्य अहिंसा ही है। जब तक विषय कषाय में मानव प्राणों का उपभोग लगा रहेगा तब तक उनको पूर्ण अहिंसात्मक आत्म सुख की प्राप्ति कभी नहीं हो सकेगी। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी श्री रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में रामराज्यप्रसंग में अहिंसा के इसी मत का अपने शब्दों में इस प्रकार वर्णन किया है फूलहि फरहिं सदा तर कानन । रहहिं एक संग गज पंचानन ॥ खग मृग सहज बयरू बिसराई । सबहिं परस्पर प्रीति बढ़ाई ॥ कूजहि खग-मृग नाना वृन्दा। अभय चरहिं बन करहिं अनन्दा॥ तुलसी के विचार में पूर्ण अहिंसा भगवान् की कृपा से ही संभव है। वह केवल मनुष्यों में ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों में भी उपज सकती है। आगे मानव-धर्म का निर्देश करते हुए तुलसी दास कहते हैं-- परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥ नर शरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहि महा भव भीरा॥ जैनतत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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