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महावीर वाणी के अनुसार श्रमण की कतिपय अन्य विशेषताओं का भी दर्शन-साम्य तुलसी-साहित्य में असंदिग्ध है---- (१) जुत्ताहार विहारो रहिदक साआ ह वे समणो ।—प्रवचनसार
अर्थात् उपयुक्त आहार-विहार से युक्त तथा कषायों से रहित श्रमण होता है। (२) समे य जे सव्वपाणभूतेसु से हु समणे -प्रश्नव्याकरण
अर्थात् जो सभी प्राणियों पर सम भाव रखता है वही श्रमण है। (३) दसणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो।--प्रवचनसार
अर्थात् दर्शन और ज्ञान से परिपूर्ण श्रमण को संयत कहा गया है। (४) सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं गाणं ।
सुद्धस्स य णिवाणं सो चिव सिद्धो णमो तस्स ॥-प्रवचनसार अर्थात् शुद्धोपयोग को श्रमणत्व कहा गया है और शुद्ध को दर्शन तथा ज्ञान । शुद्ध को निर्वाण होता है और वही सिद्ध होता है। उस सिद्ध को नमस्कार है। (५) सत्तू मित्त य समा---बोधपाहुड
अर्थात् जो शत्रु और मित्र में समभाव रखता है, वह श्रमण है । तुलसी की निम्नोक्त चौपाइयों में भक्त की जो विशेषतायें व्यक्त की गई हैं वे निश्चय ही श्रमण के उपरोक्त गुणों का ही पर्याय हैं
सरल स्वभाव न मन कुटिलाई । जथा , लाभ-सन्तोष सदाई। बर न बिग्रह आस नवासा । सुखमय ताहि सदा अब आसा ॥ अनारंभ अनिकेत अमानी। अनघ अरोष दच्छ विग्यानो।
प्रीति सदा सज्जन-संसर्गी । तृन सम विषय-स्व-अपवर्गी॥ महावीर-वाणी के अनुसार निर्मल मन वाले को श्रमण कहा गया है तो समणो जय सुमणो-- और तुलसी भी कुछ इसी प्रकार सच्चे भक्त की पहचान बताते हैं - निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥ तुलसी तो यहां तक कह गए हैं किरसना सांपिनि बदन बिल जो न जहिं हरिनाम । तुलसी प्रेम न राम सों, ताहि विधाता बाम ॥ महावीर वाणी में परिग्रह' त्याज्य माना गया है(१) लोभ-कलि-कसाय-महक्खंघो, प्रश्नव्याकरण
परिग्रह रूपी वृक्ष के तने लोभ, क्लेश और कषाय हैं । (२) णिग्गंथो वि विसएसु-भगवती आराधना
अपरिग्रही होने से विषय अभिलाषाओं का अभाव हो जाता है । (३) आचेलक्को धम्लो पुरिमचराणं मूलाराधना
साधु को सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करना चाहिए। (४) सव्वत्तो वि विमुत्तो साहू सव्वस्थ होइ अप्पवसो।-मूलाराधना
जो साधू सभी वस्तुओं की आसक्ति से मुक्त होता है, वही जितेन्द्रिय तथा आत्मनिर्भर होता है। (५) असज्जमाणो अपडिबद्ध या वि विहरइ-उत्तराध्ययनसूत्र
जो अनासक्त है, वह सर्वत्र निर्द्वन्द्व भाव से विचरण करता है। (६) सव्वत्थ भगवया अनियाणया पसत्था-- स्थानांगसूत्र
सर्वत्र भगवान् ने निष्कामता को श्रेष्ठ कहा है। 'परिग्रह' से विरक्ति की प्राप्ति होती है। इसी को भक्त का प्रमुख
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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