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ऊपर तो कभी वह हिस्सा नीचे आता जाता रहा है। किन्तु घूमता चलता रहा है, आज वह जो भी है उसका उल्टा भी रह चुका है। या पहले जो था उसका उल्टा आज कर रहा है। यानी कभी वह भोगी भी रहा है जिसकी प्रतिक्रिया में आज वह त्यागी हो गया है । यदि कभी त्यागी रहा है तो अब भोगी हुआ बैठा है। फर्क क्या पड़ा? उधर स्त्री के पीछे भागता रहा, तो इधर स्त्री से दूर भागता जा रहा है । ये वहां धन के लिए पागल रहा, तो यहां धन के कारण पागल है । और यही सब कुछ बहुत-बहुत बार होता रहा है।
जाति स्मरण का उद्देश्य यही है कि बहुत ही विरोधाभासी स्थितियों में, अनेकानेक द्वन्द्वों में, अनेक बार इसी प्रकार आते रहे हैं, जाते रहे हैं। आज हम जो भी कुछ कर रहे हैं भोग रहे हैं वह पता नहीं कितनी बार कर चुके, भोग चुके हैं। हम कुछ भी नया नहीं करते। वही-वही दोहराते भर हैं। अतः महावीर का यह अनूठा प्रयोग-जातिस्मरण--बड़ा ही कारगर उपाय है इस अंधी दौड़ को एक बार प्रत्यक्ष दिखा देने की ओर यह अंधापन दिखाई पढ़ते ही व्यक्ति की पकड़ इस दौड़ पर से छूटने लगती है। उसे यह ठीक-ठीक समझ में आ जाता है कि वह जो भी कर रहा है, कुछ भी नया या भिन्न नहीं कर रहा। पुनरावृत्ति के इस चक्र में घूमता ही चला आया है। अतएव यह जातिस्मरण का अनूठा प्रयोग महावीर की जो बहुत ही मूल्यवान और बड़ी से बड़ी देन साधना जगत् में है उनमें से एक है। यद्यपि वैज्ञानिक ढंग से अभी इस पर इतना कार्य नहीं हो सका जितना होना चाहिए। जब तक कोई साधक इस ध्यान पद्धति से--जाति स्मरण के प्रयोग से कम-से-कम एक बार न गुजर जाये तब तक वह जो कुछ भी रहा है उसका उल्टा, अथवा जो भी है आगे उसका उल्टा करने में, होने में, पड़ा रहेगा। संसारी रहा है तो संन्यास में रुचि लेने लगेगा। संन्यासी रहा है तो संसार में रस लेने लगेगा। रागी रहा है तो विरागी हो जाएगा। वैराग्य से लिप्त रहा है तो राग से बंध जाएगा। क्योंकि एक से ऊब जाने के कारण व्यक्ति उससे पीछा छुड़ा कर उसके विपरीत को पकड़ लेता है। यही उसकी मूर्छा है। जाति स्मरण के प्रयोग से उसकी यही मूर्छा टूटने में बड़ी कीमती सहायता मिलती है और तब व्यक्ति राग एवं विराग दोनों के द्वन्द्वों से छूटने लगता है। वासनाओं पर उसकी स्वनिर्मित जकड़बंदी शनै:-शनै: ढीली पड़ती चली जाती है और फिर वह जिस स्थिति की ओर अग्रसर होता है उसे महावीर ने बहुत अद्भुत शब्द दिया है। वह स्थिति है—वीतरागता।
वीतराग शब्द ही बड़ा अनूठा है। महावीर से पूर्व यह शब्द प्रायः नहीं था। वे ही इसे लेकर आये । और उनकी दी हुई साधनाएं, यदि गहरे से देखा जाये तो इसी की प्राप्ति के लिए हैं इससे पूर्व दो शब्द चलते थे। राग (शाब्दिक अर्थ रंग) और उसके विपरीत विराग। रागी यानी वह व्यक्ति जो रंगा हुआ है संसार में, सुख-सुविधाओं में, भौतिकता में पूरी तरह रत है वासनाओं-कामनाओं में। विरागी ठीक इसके विपरीत खड़ा है। यानी रागी जिस ओर मुंह किये है विरागी उस ओर से पीठ किये उधर से विमुख हो गया है। स्मरण रहे ! विरागी छूट नहीं गया है, मुक्त नहीं हो गया है। बहुत सूक्ष्म में राग और विराग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि रागी संसार में लिप्त है, दिन-रात भोगे चला जा रहा है तो विरागी वैराग्य. या त्याग में लिप्त है । यानी लिप्त दोनों ही हैं । अलिप्त या कहें निर्लिप्त कोई भी नहीं है। भोगी समझ रहा है स्त्री में स्वर्ग है । विरागी उसका उल्टा समझ रहा है कि ये चीजें ही तो नरक हैं । भागो इनसे । बंधे दोनों ही हैं। सही बात यह है कि राग से मुक्त हो जाने वाला व्यक्ति विरागी नहीं हो जाता। जैसा कि सामान्यत: माना जाता है। विरागी की भी अपनी तरह की वासनायें हैं-स्वर्ग की, मोक्ष की । तो न रागी मुक्त हुआ न विरागी मुक्त हुआ। दोनों बंधे हैं। केवल एक दूसरे की तरफ पीठ किये-विपरीत खड़े है। अर्थात् या तो 'यह' अथवा 'वह' जो इसका उल्टा है। इस चुनाव इच्छा से दोनों आबद्ध हैं। यह या वह के चुनाव से बाहर नहीं हो गये। और कितने मजे की बात यह है । जैसा कि मनोवैज्ञानिक कहते हैं और सही कहते हैं कि यह जो सांसारिक भोगों में रत रागी है। इसके अचेतन में ठीक इसके विपरीत चलता रहता है वहां आत्मा-परमात्मा की बातें होंगी। अध्यात्म और धर्म की चर्चा होगी। और जो वैरागी है, उसके अचेतन में राग विषयक बातें होंगी। तात्पर्य यह कि जो राग से बंधा है वह तो मुक्त है ही नहीं विरागी भी मुक्त नहीं है । तो फिर कौन है ऐसा जिसे मुक्त कहा जा सके ? उत्तर में यही निवेदन है कि मुक्त वही व्यक्ति हो सकता है जो महावीर के अनुसार वीतरागता वाली स्थिति को प्राप्त हो गया हो।
साधारणतः वीतराग को भी विराग या वैराग्य का ही एक रूप मानने की भूल की जाती है। जो सही नहीं है। वीतराग बात ही कुछ और है। अर्थात् महावीर के अनुसार वह स्थिति जहां पहुंचकर न 'यह' न 'वह', न 'इस पर' न 'उस पर' इन दोनों छोरों से जो पार हो जाये । इनके बाहर पहुंच जाए वह वीतराग है। राग और विराग अच्छे या बुरे संसार या स्वर्ग, सुख और दुःख आदि दोनों की वासना से जो छूट गया बाहर हो गया और अब उसका अपना कोई चुनाव कोई कामना शेष न रही वही वीतरागी हुआ। जीवन की परम उपलब्धि यदि किसी को कहा जा सकता है तो वह यही वीतराग है। जीवन-यात्रा का जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण, बल्कि जिसे कहें परम बिंदु है, और अधिक गहरे अर्थ में अन्तिम बिन्दु भी, तो वह यही है। अन्तिम इस कारण से कि फिर इसके पश्चात् ही मुक्ति की यात्रा का प्रारंभ होता है । वीतरागता की स्थिति को प्राप्त किए बिना कोई मुक्ति-यात्रा संभव नहीं हो पाती। यह कतई विचारणीय नहीं कि रागी होना चाहिए या विरागी। विचारणीय यह होना चाहिए कि हम जो भी हैं उसके प्रति कितने जाग्रत हैं । कितने मूछित हैं । इन दोनों के प्रति जाग जाना, होश से, ध्यान से, मर जाना हमारी जन्मों-जन्मों की मूर्छा भंग करने में सहायक होगा। फिर जब इन दोनों के प्रति मूर्छा टूटना प्रारंभ होगी तो वह न राग में ले
जैन तत्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ
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