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रूप ही है, जिसमें न लंबाई है न चौड़ाई,। किंतु वर्तमान खोजों ने यह साबित कर दिया कि परमाणु बिंदु ही नहीं बल्कि बिंदु भी है और तरंग भी' कभी उसका व्यवहार बिंदु की तरह होता है तो कभी तरंग की तरह, अब इसे किस प्रकार व्याख्यायित किया जाये ? यही न कि कहें-स्यात् अणु है, स्यात् तरंग है, मगर विज्ञान की भाषा में ऐसा कहा नहीं जा सकता। अतः वैज्ञानिकों को एक नया शब्द गढ़ना पड़ा। क्वांटा। क्वांटा अर्थात् वह जो एक ही समय में बिंदु भी है और तरंग भी, विज्ञान की क्वांटा-थ्योरी का निचोड़ यही है कि दोनों ही स्थितियां हैं और एक साथ हैं । इस प्रकार विज्ञान के द्वारा एकान्त-दृष्टि का खंडन हुआ और महावीर द्वारा प्रस्तुत अनेकान्त-दर्शन या स्यात्-दर्शन को वैज्ञानिक स्वीकृति मिली, जो उनकी वैज्ञानिक विचारणा का सबसे बड़ा अकाट्य प्रमाण है।
हां, एक बात और, महावीर की इस विचारणा को मैंने प्रचलित शब्द स्यात्वाद अथवा अनेकान्तवाद देना उचित नहीं समझा है। वह इसलिए कि उनके जैसे ज्ञानी की किसी भी विचारणा को किसी 'वाद' या 'इज्म' के चौखटे में जड़ना उसे छोटा कर देना होगा। इसीलिए यहां मैंने 'स्यात्-दर्शन' और 'अनेकान्त-दर्शन' शब्द प्रयोग किये । दर्शन भी फिलासफी के अर्थ में नहीं, अपितु प्रत्यक्ष देखने के अर्थ में।
__ अनेक दार्शनिक तथा धार्मिक धारणायें ऐसी मिल जायेंगी जिनके अनुसार पूर्वजन्म की बात महज एक परिकल्पना से अधिक प्रतीत नहीं होती। अतः वे इसे कोई महत्त्व या मूल्य नहीं दे पाते हैं। किंतु भारत ने, जहां आध्यात्मिक-जगत् की बहुत ऊंचाइयां खोजी और बड़ी गहराइयां पायी हैं, पूर्वजन्म को किसी परिकल्पना के तौर पर नहीं अपितु एक जीती-जागती सच्चाई के रूप में खोजा तथा प्रतिष्ठापित भी किया। महावीर से पहले भी, अधिक सुलझे हुए तौर पर ब्राह्मण संस्कृति में पूर्वजन्म विषयक सत्यों के रहस्योद्घाटन पर विस्तार से बहुत कुछ चर्चा मिलती है। किंतु महावीर, जैसा कि निवेदन कर चुका हूं बड़े मौलिक और क्रांतिकारी ज्ञानी पुरुष हैं—ने पूर्वजन्म की विवेचना न केवल किसी सैद्धांतिक या दार्शनिक भूमि पर खड़े होकर की बल्कि पूर्वजन्म में उतर सकने की एक बाकायदा प्रक्रिया भी विकसित की जिसका उन्होंने भरपूर उपयोग भी किया। यहां तक कि अपने साधकों के लिए तो उन्होंने उसे अनिवार्य भी कर दिया था। पूर्वजन्म में उतर पाने की उनकी प्रक्रिया भी वैज्ञानिक है। उसे उन्होंने नाम दिया ---जाति स्मरण ।
वस्तुत: मानव-रचना में प्रकृति की व्यवस्था बड़ी रहस्यपूर्ण है, किंतु जटिल नहीं है। हां, यह अलग बात है कि हम खुद अपने हाथों उसे जटिल बना लेते हैं, मान लेते हैं। प्रकृति ने बड़े ढंग से इस बात का पूरा बंदोबस्त किया हुआ है कि वर्तमानजन्म में पूर्वजन्म का स्मरण न आने पाये । यह हमारे ही हित में इसलिये है कि यदि वह स्मरण आ सके तो फिर उसे विस्मृत नहीं किया जा सकता। फिर यदि वह वर्तमान जन्म से हीन हुआ (और अधिकतर हीन होने की संभावना ही है। क्योंकि मानव उत्तरोत्तर हीन से श्रेष्ठ की ओर यात्रा करता है) तो उसकी स्मृति सदैव ताजा रहने से आज का जीवन दुःखों से भर सकता है। जैसे कि अब कोई जो मखमली आसनों पर विराजता बड़ा सम्मानित व्यक्ति है, यदि यह देख पाये कि अब से एक ही कदम पहले वह एक कोढ़ी था, मक्खियां भिनभिनाती थीं। तो क्या हालत होगी ? अतः प्रकृति की पूरी व्यवस्था है कि पूर्वजन्म पुनः याद न आ सके । इसका मतलब यह हुआ कि पूर्व जन्म कहीं खो नहीं जाता, नष्ट नहीं हो जाता। बस हमारी स्मृति-प्लेट के आगे बढ़ जाने से वह टेप की तरह लिपट जाता है। सो हमें स्मरण नहीं रहता। अब यदि कोई ऐसी विधि हो कि उसे फिर से स्मरण में लाया जा सके तो उसे आज भी देखा जा सकता है। महावीर ने इस विषय में अपनी अद्वितीय और मौलिक दृष्टि का एक अभूतपूर्व प्रमाण दिया, जो शायद उनसे पूर्व किसी के यहां नहीं पाया जा सकता, और साधना-जगत् में उन्होंने उसका बहुत ही अभिनव प्रयोग व उपयोग भी किया।
मिसाल के तौर पर उस व्यक्ति को, जो आज भी कभी धन के पीछे दौड़ रहा है तो कभी स्त्री के पीछे कभी प्रसिद्धि के पीछे तो कभी किसी और कामना के पीछे चाहे कितने ही शाब्दिक व्याख्यान घोंट-घोंट कर पिलाये जायें, कि इससे पूर्व भी वह यही सब कुछ करता चलाआया है और परिणाम में कुछ भी नहीं पाया है, तो वह कभी भी माननेवाला नहीं है प्रकट में सिरहिलाकर और आंखें मींचकर स्वीकार करने का अभिनव भले ही कर ले, और कहने वाले को यकीन दिलाता रहे कि वह मान गया है, किन्तु उसने यकीन किया तो नहीं है कहीं से सुनकर या पढ़कर आदमी विश्वास का लबादा भले ही ओढ़ ले विश्वास करता नहीं है फिर यदि जो कहा जा रहा है एक फिल्म के समान उसे प्रत्यक्ष दिखा भी दिया जाये तो फिर एक शब्द भी अलग से कहने की आवश्यकता नहीं रहेगी। अपनी खुली आंखों से सब कुछ साफ-साफ देख लिया और बात समाप्त हो गयी, अब कैसा अविश्वास ! तो, महावीर ने एक अद्भुत ध्यान-पद्धति विकसित की....जाति स्मरण जिसके प्रयोग द्वारा कोई भी साधक अपने पिछले जन्म में उतर सकता है तब उसे सहज ही यह पता चल जाता है कि वह क्या था और कैसा था। एक ही नही यदि खोज और प्यास गहरी हो तो कई जन्मों में भी उतर जाना असंभव नहीं रहता। फिर यही आदमी जो अब तक जैसा था पूर्वजन्म में झांककर देख लेने के उपरान्त वैसा नहीं रह जाएगा। उसे ठीक-ठीक दिखाई दे जाएगा कि जो भी वह आज कर रहा है इसे पूर्व भी और उससे पूर्व भी यही सब कुछ तो करता चला आया है, नतीजा कुछ भी नहीं पाया है। यही वह बिंदु है जहां से व्यक्ति के आंतरिक तल पर एक स्थाई परिवर्तन आ जाता है। आंखें खुल जाती हैं। घूमते हुए एक चाक की सी अपनी स्थिति उसे साफ-साफ दीखने लगती है। कभी यह हिस्सा
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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