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________________ महावीर की तर्क-पद्धति या विचारणा जिसके अनुसार 'क' में 'ख' की भी संभावना है और 'ख' में 'क' की भी संभावना है—यह बात जरा साफ और सीधी नहीं रह जाती, इसलिए मान्यता नहीं मिल सकी और संसार इस तर्क से प्रायः अनभिज्ञ ही रहता चला आया है किंतु सत्य इसी में निहित है। वास्तव में गहरी दृष्टि से देखा जाये तो जीवन या केंद्र अस्तित्व, इतना सरल और इतना ठोस (जड़) नहीं है जितना अरस्तू ने समझ लिया है, समझा दिया है, और समझने वाले समझ भी गये हैं किंतु अरस्तू से कहीं अधिक गहरे जो पहुंचे हैं उन्होंने पाया है कि जीवन में, अस्तित्व में, न कोई भी 'क' केवल 'क' है और न कोई 'ख' मात्र 'ख' है । वह चाहे कुछ भी हो। न तो प्रकाश केवल प्रकाश है न अंधकार, केवल अंधकार है न तो कोई पुरुष सिर्फ पुरुष है, न कोई स्त्री सिर्फ स्त्री है। किसी भी तथ्य के कोई भी दो पहलू किसी बहुत बड़े सत्य के मानक दो पहलू हैं, जिन्हें तोड़कर या एक दूसरे से बिल्कुल पृथक् करके देखना एकांगी दृष्टि का परिचायक तो हो सकता है, उस पूरे सत्य का परिचायक कभी नहीं हो सकेगा। महावीर के अनुसार जीवन के किसी भी एक पक्ष को देख कर, मान कर अथवा ग्रहण कर जो दावा किया जाये वह एक पक्षीय है. उसे एकान्त कहा गया है, किसी एक कोने पर पहुंचा, किसी एक कोने को देखने वाला व्यक्ति एकान्तवादी हुआ किंतु जीवन केवल उस एक कोने से देखे गए, उसी एक पहलू में समाये किसी सीमित अस्तित्व का नाम नहीं है, जीवन उससे कहीं अधिक विराट् विस्तीर्ण तथा असीम है, उस एक के अतिरिक्त भी कई एक कोने, कई एक ऐसे पहलू शेष रह जाते हैं जो अनदेखे होंगे, तब एकांतवादी के लिए वे अज्ञात रह जाते हैं, अर्थात् किसी एक ही कोने से देखा या अनुभव किया गया सत्य बहुत छोटा पड़ जाता है, और अगर सही कहा जाये तो सत्य से बहत दर भी है, संकीण है, जबकि सत्य कभी संकीर्ण नहीं, वह है विराट्, उसमें हर पक्ष, हर कोना, सब समाहित है, । इसलिए महावीर का आग्रह 'एक' पर नहीं है, वे 'अनेक' की पूरी संभावना पाते हैं, तो, उनके यहां न कोई विरोध है और न विरोधी दृष्टि और न नकार है। वहां तो सभी कुछ एक दूसरे का ठीक-ठीक परिपूरक है और एक ही सत्य का कोई कोना है । वे तो यहां तक कहते हैं कि यदि हम सभी पक्षों अथवा सभी दष्टियों को जोड़ भी लें तो भी सत्य के बारे में जो वक्तव्य होगा वह भी पूरा नहीं होगा। क्योंकि उतने में भी सत्य पूरा नहीं हो जाता। उसके सभी पहल हमारे सामने नहीं आ जाते हैं, प्रत्येक अनुभव के अनन्त कोण हैं और हर कोण पर खड़ा आदमी बस उतने तक ही सही है जितने तक वह देख पा रहा है। अत: उन्होंने एक सर्वथा नूतन दृष्टि दी जिसे कहते हैं-अनेकान्त यानी जीवन के देखे-अनदेखे सभी पहलुओं की एकसाथ स्वीकृति । महावीर ने जीवन को, सत्य को, इतने कोनों से देखा है जितना शायद किसी बुद्धपुरुष ने नहीं देखा होगा। यद्यपि उनसे पूर्व भी सत्य के सम्बन्ध में तीन संभावनाओं की पुरानी स्वीकृति चली आती थी । जो मान्य भी थी, उदाहरणार्थ कोई वस्तु नहीं है, और वस्तु है भी, बस सत्य को इन्हीं तीन कोणों (है, नहीं है, अथवा दोनों याना है भी व नहीं भी) से देखा गया था। इसके बाद या इससे भिन्न किसी भी संभावना पर कोई विचारणा प्रस्तुत नहीं की गयी थी। पुरानी भाषा में इस दृष्टि को त्रिभंगी-दृष्टि कहते हैं और यह महावीर से पूर्व ही चली आती थी, महावीर वे प्रथम क्रांतिकारी ज्ञानी पुरुष हैं जिन्होंने इस त्रिभंगी-दृष्टि का विस्तार और विकास बड़े ही अनूठे ढंग से किया, उन्होंने इसे त्रिभंगी से, उसी भाषा में कहें तो, सप्तमंगी कर दिया । क्योंकि उनके अनुसार सत्य इन्हीं तीन में नहीं समाया हुआ। बहुत कुछ है जो इससे बाहर रह जाता है, तब उसका क्या होगा? अतः उन्होंने एक नया शब्द जोड़ा-'स्यात्' (शायद या कदाचित् के अर्थ में नहीं) उन्होंने इन सीधी-साधी तीन संभावनाओं में चौथी संभावना की वृद्धि करके एक कड़ी यह जोड़ी कि- 'स्यात अनिर्वचनीय है ? यानी जो हो भी सके, नहीं भी हो सके, पांचवीं कड़ी जोड़ी कि—स्यात् है और अनिर्वचनीय है, छटी जोड़ी कि-'स्यात् है, नहीं है और अनिर्वचनीय है ! और अंत में सातवीं कड़ी जोड़कर कहा कि- स्यात् है भी और नहीं भी है और अनिर्वचनीय है ! इस प्रकार, उनके देखे. सत्य को इन सात कोणों से देखा जा सकता है, यह उनकी अभूतपूर्व और अद्भुत विचारणा है जो सत्य के सर्वाधिक समीप तक पहुंचती है। अब अगर महावीर से प्रश्न किया जाये---आत्मा है ? (यह मैं उदाहरण दे रहा हूं, प्रश्न कुछ भी पूछा जा सकता है) तो उनका उत्तर इस प्रकार होगा-स्यात् है भी, स्यात् नहीं भी है, स्यात् है भी नहीं भी, स्यात् अनिर्वचनीय है, स्यात् है, और अनिर्वचनीय है. स्यात नहीं है और अनिर्वचनीय है, स्यात् है भी नहीं भी और अनिर्वचनीय है। प्रकट में यह बात सामान्य बुद्धि से परे भले ही पड़ जाये, कित इससे अधिक पूर्ण बक्तव्य नहीं हो सकता, सत्य के बारे में इतना गहन दर्शन अपने आप में बड़ी क्रांतिकारी चीज है. इसी को महावीर का स्यात्-दर्शन कहा जाता है, जिसका आधार है सापेक्ष-दृष्टि । महावीर की इस अद्भुत विचारणा को तब तक न तो पूर्ण स्वीकृति मिल पायी और न इसे ठीक-ठीक समझा गया। जब तक कि इस शती के महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने सापेक्ष-सिद्धान्त के निष्कर्ष प्रस्तुत न कर दिये । क्या यह रोचक बात नहीं है कि आइन्स्टीन विज्ञान की भाषा में भौतिक शास्त्र के अन्तर्गत जो बात कर रहा है, अध्यात्म विज्ञान के अन्तर्गत महावीर उसे पच्चीस सौ वर्ष पहले ही कह चके थे. अतः इस बात की बहुत बड़ी संभावना है कि महावीर का यह स्यात्-दर्शन भविष्य के लिए दिन ब दिन बड़ा कीमती हो जाने वाला है. आज के विज्ञान ने उसे बहुत बड़ी स्वीकृति दे दी है। भौतिक विज्ञान के अन्तर्गत आइन्स्टीन की सापेक्ष-थ्योरी और अध्यात्म के अन्तर्गत महावीर की सापेक्ष-दृष्टि बहुत बड़ी सीमा तक समान है, अर्थात् विज्ञान-जगत् में अब तक यही माना जाता था कि परमाणु (एटम) एक कण या बिंदु बन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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