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परम ज्ञानियों में एक वैज्ञानिक : महावीर
स्वामो वाहिद काज़मी
बुद्ध पुरुषों के समूचे इतिहास तथा जैन तीर्थकरों की पूरी परम्परा में महावीर अकेले ऐसे व्यक्ति ठहरते हैं, जिन्हें सर्वथा मौलिक व अनूठा ही नहीं अति साहसी बुद्धपुरुष कहा जा सकता है । साहसी इस अर्थ में कि वह जिसे हम परमसत्ता कहें, परमसत्य कहें, परमज्ञान कहें, मोक्ष कहें या निर्वाण, उस तक पहुंचने का जो मार्ग उन्होंने बताया, उसमें न किसी शास्त्र की आवश्यकता रखी, न पंथ की, न गुरु की, न किसी और की, कहीं कोई 'पर' है ही नहीं, वह 'स्व' की उड़ान है, 'स्व' की ओर तथा 'स्व' की ही प्राप्ति हेतु बीच में तनिक भी किसी का सहारा लिया तो भटकन फिर भटकन का प्रारंभ होने में देर नहीं लगती। अत: उन्होंने साधना-जगत् में साधक को सबसे पहले सही अर्थों में मुक्त करने तथा स्व-अधीन रखने का प्रयास किया। तथ्य यही है कि जीवन में जो भी अति मूल्यवान् है उसे स्वयं में ही और स्वयं से ही प्राप्त किया जा सकता है । अर्थात् सत्य किसी अन्य में नहीं स्वयं में ही निहित है । बस जिसे निरन्तर उघाड़ते चले जाना है। दूसरे के सहारे से जो प्राप्त हो सकता है, वह उधार का होगा, बासी होगा, उसमें जीवंतता नहीं होगी। वह 'उसका' सत्य होगा 'अपना' सत्य नहीं। सत्य का आविर्भाव और सत्य की परम अनुभूति स्वयं में ही हो सकती है। यह दृष्टि महावीर ने बड़े साहस के साथ प्रस्तुत की है। इसीलिए उन्होंने न तो खुद किसी के पीछे चलना पसंद किया और न अपने पीछे किसी को चलाना । अतः अनुयायी अथवा गुरु-शिष्य जैसी कोई परम्परा उनके यहां प्रश्रय नहीं पा सकी, न पल्लवित हो सकी। उनके अनुसार कोई किसी को मोक्ष नहीं दे सकता कोई किसी का मोक्षदाता या मुक्तिदाता है ही नहीं। अतः अनुकरण या अनुयायी का प्रश्न ही नहीं उठता। अनुगमन भी नहीं, अधिक से अधिक महावीर के साथ सहगमन हो सकता है और यह बड़ी क्रांतिकारी बात थी। इसलिए उनके यहां अधिक से अधिक संभावना कल्याण-मित्र की ही पायी जा सकेगी। यानी न आगे न पीछे अपितु वह एक जो संग चलने को राजी हो सके । यहां तक कि उन्होंने परम्पराओं से चले आ रहे ईश्वर या परमात्मा को भी अपना इष्ट बनाने की आवश्यकता नहीं समझी । जो अब तक सभी साधना-मार्गों का हकमान लक्ष्य रहता आया था। यह स्वतंत्र दृष्टि उन जैसा साहसी पुरुष ही दे सकता था। इसलिए मैं उन्हें परमसाहसी पुरुष कह रहा हूं। यद्यपि उनकी इस स्वतंत्र दृष्टि को कुछ का कुछ अर्थ देने की भ्रांतिवशात् उन्हें नास्तिक मान लेने की बड़ी भारी भूल हो गयी और इस संकीर्ण-दृष्टिकोण का प्रबलतम दुष्परिणाम यह हआ कि ब्राह्मण संस्कृति, श्रमण संस्कृति की विरोधी हो गयी और वह विरोध अब तक समूल नष्ट नहीं हो पाया। बावजूद इसके कि ये दोनों आर्य-दर्शन की दो धाराएं थी किंतु विरोध के कारण एक दूसरे से बहुत दूर नजर आने लगीं।
महावीर की एक और बहुत बड़ी खूबी जो उन्हें अन्य बुद्ध पुरुषों से विशिष्टता प्रदान करती देखी जा सकती है । वह यह है कि सत्य की या ज्ञान की अनुभूति की पूर्णता को तो बहुतेरे महामानव प्राप्त हुए हैं और होते भी रहेंगे, मगर अनुभूति के साथ-साथ उतनी ही महत्त्व पूर्ण जो अभिव्यक्ति-क्षमता होती है उसने महावीर से बढ़कर शायद किसी अन्य ज्ञानी में इतनी पूर्णता को प्राप्त नहीं किया बल्कि यह कहना अधिक उचित प्रतीत होता है कि अभिव्यक्ति की समग्रता और संपूर्णता यदि किसी ज्ञानी को प्राप्त रही तो वे महावीर हैं। इसके कारण भी हैं । मोटे तौर पर यह कि बुद्धत्व विषयक या परमज्ञान विषयक जो वैज्ञानिक दृष्टि, जो वैज्ञानिक चितना है, वह महावीर के समान किसी अन्य ज्ञानी में नहीं है। उन्हें यदि बुद्धपुरुषों में वैज्ञानिक या वैज्ञानिक बुद्धपुरुष कहा जाये तो गलत नहीं होगा । साधना तथा आत्मोप्लब्धि से निःसृत महावीर की जो चिंतना, देशना या प्रक्रियाएं हैं उनमें से कुछेक की ओर संकेत करना इस समय अति प्रासंगिक प्रतीत होता है।
___ अब तक विश्व में जो भी तर्क-प्रणालियां प्रचलित हैं वे दो ही हैं। एक है प्रख्यात विचारक अरस्तू की तर्क-पद्धति जो साफ है, सीधी है, बिल्कुल आसानी से और बड़ी जल्दी समझ में आ जानेवाली है। मामला बड़ा हिसाबी है । उसके अनुसार दो और दो-चार होते ही हैं। इस कारण वह समूचे संसार में प्रचलित है । यद्यपि अरस्तू की पद्धति प्रत्येक स्थिति में और बहुत अधिक सत्य नहीं है । तथापि, मान्य है और हावी है। यानी अरस्तू के अनुसार (उदाहरणार्थ) 'क' क है और 'ख' ख है। 'क' कभी 'ख' और 'ख' कभी 'क' नहीं होता न हो सकता है। यानी उसकी विचारणा विश्लेषण पर आधारित है और किसी भी सत्य को तोड़कर, पृथक्-पृथक्, खंड-खंड करके निष्कर्ष देती है। एक है
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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