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आधुनिक युग में जैन सिद्धान्तों की उपयोगिता
डॉ० विमल कुमार जैन
भारतवर्ष में सहस्राब्धियों से दो संस्कृतियां प्रमुख रही हैं-वैदिक संस्कृति और श्रमण संस्कृति । वैदिक संस्कृति का मूलाधार प्रारम्भ में सृष्टि वैभव से चमत्कृत हो ईश्वर के प्रति साश्चर्य प्रकृतिपरक रहा। अत: कर्मकाण्ड की प्रधानता रही। तदनन्तर एकान्तवासी आरण्यक ऋषियों ने चिन्तन को महत्त्व देकर ज्ञान का वैभव व्यक्त किया और कालान्तर में इन दोनों ने जनमानस को भक्ति की ओर प्रेरित किया। पुनः विरोध को सामंजस्य में बदलने के लिए इनका समन्वय हुआ। यह प्रक्रिया वेद, आरण्यक उपनिषद्, दर्शन शास्त्र एवं पुराणों का अवलोकन कर सहज समझ में आ जाती है। इससे भिन्न श्रमण संस्कृति प्रारम्भ से ही निवृत्ति परक रही, जिसमें आत्म गुण उपयोग अर्थात् ज्ञान को साध्य मानकर भक्ति एवं क्रिया को साधन माना गया ।
ये दोनों संस्कृतियां प्रारम्भ से ही एक-दूसरे को प्रभावित करती रही हैं। जैन निवृत्ति ने वैदिक विचार धारा को और वैदिक भक्ति ने जैन चिन्तन को प्रभावित किया । जैन धर्म शाश्वत सिद्धान्तों पर आधृत है अतः एक सनातन विचारधारा है। इन सिद्धान्तों का सर्वप्रथम विवेचन आदि तीर्थकर श्री ऋषभदेव ने किया था । तदुपरान्त चौबीसवें तीर्थंकर महावीर से पूर्व बाईस तीर्थकरों ने अपने समय में इनका प्रतिपादन किया, वैदिक ग्रन्थों में ऋषभदेव के अतिरिक्त अजितनाथ एवं नेमिनाथ आदि का उल्लेख भी है तथा ऋषभदेव को तो अवतार माना गया है । अन्त में उन सिद्धान्तों का निरूपण आज से लगभग पच्चीस सौ वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने किया, जो धर्म शास्त्रों में उपलब्ध है।
भगवान् महावीर श्रमण संस्कृति के प्रमुख उन्नायक थे। उनके समय में छ: महात्मा और थे, जो श्रमण संस्कृति के प्रवक्ता थे। पूरण काश्यप, मक्खलि गोशाल, अजित केश कम्बल, प्रकुधकात्यायन, संजय वेलटिठपुत्र और गौतम बुद्ध । परन्तु इनमें से आज केवल भगवान् बुद्ध की वाणी ही ग्रन्थों में संग्रहीत है और विश्व के अनेक देशों में प्रचारित है।
भगवान् महावीर ने जिन सिद्धान्तों का निरूपण किया था, वे किसी वर्ग विशेष से सम्बद्ध न होकर सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक थे अत: कूपमण्डूकता की परिधि से परे 'जनहिताय' थे। यही कारण है कि वे जितने उस समय उपयोगी थे, आज भी हैं और भविष्य में भी सदा रहेंगे।
___महावीर की समकालीन परिस्थितियां सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दृष्टि से बड़ी विषमतापूर्ण थीं। समाज में ब्राह्मणों की प्रमुखता थी, राजनीति, समाज एवं शिक्षा आदि के संचालक वे ही थे। शासक क्षत्रिय अवश्य थे परन्तु मन्त्री, राजगुरु, राजवैद्य और राजज्योतिषि पदों पर वे ही आसीन थे। यद्यपि वे विद्वान् होते थे, उनमें त्याग भी था किन्तु ऊंच-नीच के भेदभाव में उनका बहुत हाथ था। शासक उन्हीं के संकेत पर चलते थे। उन्हीं के कारण कर्मकाण्ड का अत्यधिक प्रचार था अतः यज्ञ प्राय: हुआ करते थे, जिनमें पशु बलि तो साधारण थी ही, नरबलियां भी दी जाती थीं। मध्यम और निम्न वर्ग आर्थिक विषमता से घुट रहा था तथा स्त्री समाज अनेक अधिकारों से वंचित था।
भगवान् महावीर ने इन भयंकर परिस्थितियों में मूक पशुओं और निस्सहाय लोगों की आह सुनी, आर्थिक विषमता के भार से दबे मध्यम एवं निम्न वर्ग की दुरवस्था को देखा तथा स्त्रियों की दयनीय स्थिति पर दृष्टिपात किया तो उनकी आत्मा कराह उठी और वे क्रान्तिदूत के रूप में समाज के समक्ष आये तथा उन्होंने सहअस्तित्व का उपदेश दिया। सबल हाथों को इन बुराइयों का उन्नायक मानकर उन्होंने आध्यात्मिक क्रान्ति द्वारा ही इन्हें दूर करने का निर्णय लिया और वे त्यागी तपस्वी तथा ज्ञानी बनकर इस कार्य में अग्रसर हुए। महात्मा बुद्ध ने भी इसी मार्ग को अपनाया परन्तु कालान्तर में अपनी भिन्न सारणी द्वारा उन्होंने इस लक्ष्य के सम्पादन में प्रयत्न किया।
यहां जैन धर्म के उन उपयोगी सिद्धान्तों पर प्रकाश डालना आवश्यक है जिनका तात्कालिक परिस्थितियों को देखकर जनहित के लिए भगवान महावीर ने प्रतिपादन किया था और जो उस समय की भांति आज भी उतने ही उपयोगी हैं । जनहित के लिए सर्वप्रथम
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्य
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