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आवश्यक है हनन प्रवृत्ति का परित्याग और इसके लिए अनिवार्य है सत्य, सन्तोष, संयम और त्याग का ग्रहण तथा दृष्टिकोण में उदारता। ये ही हैं सुदृढ़ समाज के लिए रामवाण औषधियां, जिनके बिना विश्व की कोई प्रणाली न स्वस्थ हो सकती है और न पुष्ट । इसीलिए उन्होंने पांच व्रतों का सुविस्तृत विवेचन किया तथा दृष्टि की व्यापकता पर बल दिया।
ये पांच व्रत हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय (अचौर्य), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । दृष्टि की व्यापकता या उदारता को उन्होंने अनेकान्त या स्याद्वाद संज्ञा दी । अहिंसा परमो धर्मः अहिंसा को परम धर्म इसलिए कहा गया क्योंकि शेष उसके आचरण पर स्वयं अनुगमन करते हैं। अहिंसक की दृष्टि भी उदार हो जाती है । इसीलिए अहिंसा जैन दर्शन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। अहिंसा : समताः एवं विश्व शान्ति : अहिंसा की धुरी समतातत्त्व पर घूमती है । आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने अहिंसा की व्याख्या इस प्रकार की है
कुलजोणिजीवमग्गण-ठाणाई सुजाणऊणजीवाणं ।
तयेसारम्भणियत्तण-परिणामों होइ पढमवदं ॥ अर्थात् कुल, योनि और मार्गणा आदि द्वारा जीवों के स्थानों को जानकर भेदभाव के बिना उनमें आरम्भ वृत्ति से हटना अहिंसा है। इससे स्पष्ट है कि समस्त प्राणियों में समभाव अहिंसा का आधार है।
श्रमणों के लिए जहां हिंसा का पूर्णत: वर्जन है, वहां सामाजिक के लिए लोक व्यवहार के पालनार्थ कुछ मर्यादायें हैं । वह सापराध को दण्ड दे सकता है। उसके लिए स्थूल रूप में अहिंसा का पालन आचार्य उमास्वामी के शब्दों में इस प्रकार हो सकता है :
मैत्रीप्रमोद कारूण्यमाध्यस्थयानि च
सत्वगुणाधिक किल्श्यमाना ऽविनयेषु । अर्थात् सज्जनों के प्रति मैत्री, गुणी जनों के प्रति प्रमोद भाव किलष्ट प्राणियों के प्रति कारूण्य और विरोधवृत्ति वालों के प्रति माध्यस्थभाव (उदासीनता) रखना।
संसार के समस्त विप्लवों का मूल रागद्वेष है । इष्ट के प्रति राग और अनिष्ट के प्रति द्वेष क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या एवं मात्सर्य आदि दुर्भावनाओं को प्राणियों में जागृत करते हैं और ये विचार हिंसा के लिये प्रेरणा देते हैं। इन्हीं के वशीभूत होकर व्यक्ति स्वार्थ से अन्धा हो जाता है और वह अन्य व्यक्तियों के प्रति अहित की बात सोचता है, अपशब्द कहता है, प्रतिशोधवश छेदन-भेदन एवं मरण-मारण करता है, असत्य बोलता है, चौर्य कर्म करता है, बलात्कार तथा घात तक कर डालता है और धन धान्य-क्षेत्रादि का अधिकाधिक संग्रह कर दूसरे को उनके अधिकार से वंचित करना चाहता है। इनके परिणाम स्वरूप ही वह भयंकर लूटमार, अग्निकाण्ड और युद्धों का कारण बनता है। इस प्रकार वह विश्व के लिए एक महान संकट का कारण होता है । अतः विश्व शान्ति के लिए अहिंसा अनिवार्य है। महाभारत में तो इसीलिए अहिंसा को परम धर्म, परम तप और परम सत्य ही नहीं, धर्म का प्रवर्तक भी माना है
अहिंसा परमो धर्मः. अहिंसा परमं तपः।
अहिंसा परमं सत्यं, ततो धर्म प्रवर्तते ॥ यह विश्वविदित एक तथ्य है कि सर्व प्रथम भगवान महावीर ने ही अहिंसा का विशद विवेचन किया और उसका व्यापक प्रभाव विश्व के समस्त धर्म, दर्शन एवं साहित्यों पर पड़ा। महात्मा बुद्ध स्वयं प्रारम्भ में जैन दीक्षा लेकर त्यागी बने थे और भगवान् महावीर के समकालिक एवं समक्षेत्रीय होकर उनके द्वारा प्रतिपादित अहिंसा एवं मोक्ष मार्ग से प्रभावित हुए थे। उन्होंने मज्झिम निकाय में भगवान महावीर के इस मार्ग की प्रशंसा भी की है। महाभारतादि वेदानुयायी ग्रन्थों में भी अहिंसा का प्ररूपण जैन अहिंसा के प्रभाव का ही परिणाम है। क्योंकि उनसे पूर्व वैदिक धर्म में यज्ञादि अनुष्ठानों में हिंसा मान्य थी। आगे चलकर ईसाई और मुस्लिम धर्म भी इस प्रभाव से अछूते नहीं रहे । बाइबल में तो यहां तक कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति तुम्हारे गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल और कर दो। कुरान में भी स्थान स्थान पर रहम का गुणगान है, अल्लाह सबसे बड़ा रहिम है।
इनके अतिरिक्त विश्व के बड़े-बड़े दार्शनिक साहित्यकार एवं नेता भी इससे प्रभावित हुए बिना न रहे । सर्वश्री टालस्टाय, रोम्मो रोलां एवं महात्मा गांधी आदि इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं । महात्मा गांधी ने तो अहिंसात्मक सत्याग्रह से ही विश्व की महान् शक्ति अंग्रेजी सत्ता को भारत से निकल जाने के लिए विवश कर दिया ।
___अहिंसक व्यक्ति असत्य का आचरण नहीं कर सकता, दूसरों के पदार्थ और अधिकारों को नहीं छीन सकता, वासनावश अनाचार की प्रवृत्ति से रुकेगा ओर अधिक परिग्रह के लिए विधि-विरुद्ध कार्य न करेगा वरन् उदार हो समाज एवं राष्ट्र की सहायता करेगा। इस
जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ
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